चीन-पाक और बांग्लादेश गठजोड़: दक्षिण एशिया में भारत को घेरने की नई रणनीति

क्षिण एशिया में कूटनीतिक संतुलन एक बार फिर पुनर्गठित होता दिखाई दे रहा है, जहां हाल ही में चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश की त्रिपक्षीय बैठक ने क्षेत्रीय राजनीति को एक नई दिशा दी है, और यह स्पष्ट संकेत देती है कि यह गठजोड़ भारत के लिए एक नई रणनीतिक चुनौती के रूप में उभर रहा है। यह न केवल भारत के पारंपरिक प्रभावक्षेत्र में हस्तक्षेप का प्रयास है, बल्कि चीन की ‘पड़ोसी कूटनीति’ का भी हिस्सा है, जो ‘चक्रव्यूह’ के रूप में भारत को घेरने की दीर्घकालिक रणनीति के अंतर्गत आता है।
पाकिस्तान के साथ चीन की सैन्य-आर्थिक साझेदारी पहले से ही भारत के लिए एक प्रमुख सुरक्षा चिंता रही है, लेकिन अब जब बांग्लादेश जैसे पड़ोसी राष्ट्र को भी एक सक्रिय त्रिपक्षीय मंच में जोड़ा जा रहा है, तो यह भारत की ‘नेबरहुड फर्स्ट’ नीति के प्रभाव और विश्वसनीयता पर एक गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। ‘त्रिकोणीय समीकरण: चीन-पाकिस्तान-बांग्लादेश की नई धुरी और दक्षिण एशिया में भारत की चुनौती’ शीर्षक के अंतर्गत देखें तो यह समीकरण केवल एक प्रतीकात्मक बैठक नहीं बल्कि एक संगठित रणनीतिक प्रयास है, जो क्षेत्रीय सुरक्षा, आर्थिक और भू-राजनीतिक समीकरणों को पुनर्परिभाषित कर सकता है। जहां पाकिस्तान के साथ चीन का सैन्य और CPEC जैसे परियोजनाओं में गहरा जुड़ाव पुराना है, वहीं बांग्लादेश का इस धुरी की ओर झुकाव नई दिल्ली के लिए एक चिंताजनक संकेत है, विशेषकर तब जब ढाका हाल के वर्षों में चीन से व्यापक व्यापारिक और रक्षा सहयोग बढ़ा रहा है।
‘बीजिंग से बांग्लादेश तक: दक्षिण एशिया में भारत को घेरने की रणनीति?’ इस संभावित खाके में बांग्लादेश की भूमिका बेहद अहम हो जाती है क्योंकि भारत-बांग्लादेश संबंध ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से गहराई से जुड़े रहे हैं। यदि बांग्लादेश चीन के प्रभाव में आकर पाकिस्तान के साथ किसी प्रकार की बहुपक्षीय रणनीति अपनाता है, तो यह भारत के लिए न केवल कूटनीतिक असफलता होगी, बल्कि सुरक्षा और व्यापार के स्तर पर भी गहरे असर डालेगा। ऐसे में यह ‘चीन की पड़ोस नीति: त्रिपक्षीय वार्ता के बहाने भारत को घेरने की साज़िश?’ प्रतीत होती है, जिसमें चीन आर्थिक सहायता, ऋण कूटनीति और रणनीतिक बुनियादी ढांचे के माध्यम से दक्षिण एशियाई देशों को आकर्षित कर रहा है। यह ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ रणनीति का ही विस्तारित रूप है, जिसमें चीन हिंद महासागर क्षेत्र में भारत के चारों ओर सामरिक ठिकानों का निर्माण और गठबंधन कर भारत की समुद्री पहुंच को सीमित करना चाहता है।
बांग्लादेश का झुकाव और पाकिस्तान का साथ क्या दक्षिण एशिया में चीन बना रहा है ‘नया गठबंधन’?—यह सवाल इसलिए भी गंभीर हो जाता है क्योंकि बांग्लादेश ने हाल के वर्षों में चीन के साथ रक्षा उपकरणों की खरीद से लेकर बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में निवेश तक कई ऐसे कदम उठाए हैं जो इसे चीन की रणनीतिक गोद में ले जाते दिखते हैं। साथ ही, बांग्लादेश ने भारत की रणनीतिक प्राथमिकताओं—जैसे तेस्ता जल समझौते, एनआरसी(NRC) व सीएए(CAA) विवाद—के संदर्भ में असंतोष भी व्यक्त किया है, जिससे चीन को वहां कूटनीतिक जगह बनाने का अवसर मिला है। ‘भारत के लिए चेतावनी की घंटी: चीन-पाक-बांग्लादेश की बढ़ती निकटता’ इसीलिए एक चेतावनी है कि यदि भारत पड़ोसी संबंधों में सतर्कता और समावेशिता नहीं अपनाता, तो दक्षिण एशिया में वह अकेला खड़ा रह सकता है। ‘दक्षिण एशिया की भू-राजनीति में नया मोड़: क्या भारत अलग-थलग पड़ रहा है?’ इस विषय के अंतर्गत गौर करें तो SAARC जैसी क्षेत्रीय संस्थाएं पहले ही निष्क्रिय पड़ी हैं और BIMSTEC अभी तक सार्थक सामूहिकता नहीं बन पाया है। ऐसे में यदि चीन त्रिपक्षीय मंचों के माध्यम से ‘मिनी-सार्क’ जैसा ढांचा विकसित करता है तो भारत के नेतृत्व को सीधी चुनौती मिलेगी।
भारत के लिए यह अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि वह ‘नेबरहुड फर्स्ट’ नीति को केवल नीतिगत घोषणाओं तक सीमित न रखे बल्कि उसे जमीनी स्तर पर प्रभावी बनाए, जिससे बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देश भारत की विश्वसनीयता और साझेदारी पर पुनर्विचार न करें। त्रिपक्षीय वार्ता से भारत की विदेश नीति पर असर की चर्चा करें तो भारत की कूटनीतिक प्रतिक्रिया अब तक इस गठबंधन को लेकर सतर्क किंतु प्रतिक्रियाहीन रही है। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि भारत न केवल सार्वजनिक रूप से इस गठजोड़ की रणनीति को उजागर करे बल्कि बांग्लादेश के साथ उच्च-स्तरीय संपर्कों और विकास-केन्द्रित सहयोग को सशक्त करे।
चीन की ‘त्रिपक्षीय कूटनीति: दक्षिण एशिया में संतुलन बदलने की कोशिश?’ स्पष्ट रूप से एक ऐसी रणनीति है जो भारत की पारंपरिक क्षेत्रीय भूमिका को कमजोर करने हेतु बनाई जा रही है और इसमें पाकिस्तान जैसे भारत-विरोधी देश की भूमिका सिर्फ ‘सहायक’ नहीं बल्कि मुख्य ‘साजिशकर्ता’ जैसी है। भारत के लिए बढ़ती रणनीतिक चिंता अब केवल रणनीतिक विश्लेषण का विषय नहीं, बल्कि नीति-निर्माण की प्राथमिकता होनी चाहिए। भारत को चाहिए कि वह अपनी कूटनीति को केवल ‘प्रतिक्रियात्मक’ नहीं बल्कि ‘पूर्व-नियोजित और सक्रिय’ बनाए। मल्टी-एलायंस डिप्लोमेसी, पब्लिक डिप्लोमेसी, सांस्कृतिक संपर्कों और व्यापारिक विश्वास की बहाली के माध्यम से भारत को दक्षिण एशिया में अपनी खोती भूमिका को पुनः स्थापित करना होगा।
चीन-पाकिस्तान-बांग्लादेश गठजोड़: दक्षिण एशिया में भारत के लिए नई चुनौती भारत के लिए केवल एक कूटनीतिक चुनौती नहीं बल्कि उसकी विदेश नीति, सुरक्षा रणनीति और पड़ोस प्रबंधन की समग्र पुनर्समीक्षा का अवसर है। यदि भारत ने समय रहते समेकित रणनीति न अपनाई, तो आने वाले वर्षों में वह न केवल भू-राजनीतिक रूप से बल्कि कूटनीतिक प्रभाव के स्तर पर भी हाशिए पर चला जाएगा, और यही चीन की सबसे बड़ी कामयाबी होगी। अतः यह समय भारत के लिए ‘कूटनीतिक आक्रमकता’ का है न कि ‘राजनयिक संतुलन’ का।
(लेखक : आदित्य वर्मा, शोधार्थी – अंतरराष्ट्रीय संबंध ,लखनऊ विश्वविद्यालय )

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