- Karam Parab – केवल उत्सव नहीं, जीवन-पद्धति
भारत की सांस्कृतिक विविधता उसकी सबसे बड़ी ताकत है, जहाँ पर्व-त्योहार केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं रहते, बल्कि सामाजिक समरसता, पारिवारिक रिश्तों और पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी देते हैं। झारखंड की संस्कृति में करम परब का विशेष स्थान है, जिसे हर वर्ष भादो माह की शुक्ल पक्ष एकादशी को मनाया जाता है। यह त्योहार आदिवासी समाज की आत्मा से जुड़ा हुआ है और भाई-बहन के प्रेम, प्रकृति के सम्मान और श्रम संस्कृति को समर्पित है।
इस दिन बहनें अपने भाइयों की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि की कामना करते हुए उपवास रखती हैं। वे करम देवता की पूजा करती हैं और पूरी रात पारंपरिक गीतों व नृत्य के माध्यम से उत्सव मनाती हैं। यह पर्व केवल धार्मिक आस्था का नहीं, बल्कि सामुदायिक भावना, पारिवारिक एकता और प्रकृति के साथ तालमेल का प्रतीक है।
लोककथा और उसका संदेश
लोकपरंपरा में प्रचलित कथा के अनुसार, खेतों में काम कर रहे भाइयों ने अपनी बहनों द्वारा पूजित करम वृक्ष का अनादर कर दिया, जिससे उनके जीवन में संकट आ गया। बाद में जब उन्होंने करम देवता से क्षमा माँगी और श्रद्धा से पूजा की, तब जाकर उन्हें सुख-शांति प्राप्त हुई। यह कथा सिखाती है कि प्रकृति और रिश्तों का सम्मान आवश्यक है, अन्यथा जीवन में कठिनाइयाँ आ सकती हैं।
भाई-बहन का अटूट रिश्ता
करम परब में सबसे खास बात भाई-बहन के रिश्ते की गहराई है। बहनें न केवल व्रत रखती हैं, बल्कि करम गीत गाकर और करम डाली की पूजा करके यह प्रार्थना करती हैं कि उनके भाई सुखी, स्वस्थ और दीर्घायु रहें। इस परब का मुख्य केंद्र करम डाली होती है, जिसे जंगल से लाया जाता है और गाँववासी मिलकर मिट्टी, अनाज, फूलों और जल से सजाते हैं। इसकी पूजा का अर्थ प्रकृति की पूजा है, क्योंकि आदिवासी जीवनशैली जंगल, नदी, पेड़ और धरती से गहराई से जुड़ी होती है।
जब गाँव की महिलाएँ करम डाली के चारों ओर नृत्य करती हैं और गीत गाती हैं, तो यह केवल धार्मिक रस्म नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ उनके भावनात्मक संबंध और सामूहिक श्रम संस्कृति का उत्सव बन जाता है। करम गीतों और नृत्यों में खेतों की महिमा, श्रम की गरिमा और भाई-बहन के रिश्तों की मिठास झलकती है।
जावा बोने की परंपरा
इस परब की एक और अनूठी परंपरा है जावा बोना। इसमें युवतियाँ धान, मक्का, जौ आदि के बीज बोती हैं और उनका पवित्रता से पालन करती हैं। इस अवधि में वे लहसुन, प्याज, मांस, मछली जैसे पदार्थों से दूर रहती हैं और भोजन व पहनावे में संयम रखती हैं। यह अनुशासन केवल धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और सामाजिक जीवन में संतुलन की शिक्षा भी देता है।
सामूहिकता और महिलाओं की भूमिका
करम परब सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें पूरा गाँव एकजुट होकर करम डाली की पूजा करता है। इसमें महिलाओं की भूमिका विशेष रूप से उल्लेखनीय है—वे जावा बोती हैं, सजावट करती हैं, गीत गाती हैं और पूरे आयोजन की अगुवाई करती हैं। यह उनके सांस्कृतिक नेतृत्व और सामाजिक योगदान को रेखांकित करता है।
पर्यावरण चेतना
करम परब का एक महत्वपूर्ण पहलू पर्यावरण संरक्षण है। करम वृक्ष और कृषि बीजों की पूजा यह दर्शाती है कि मनुष्य का जीवन प्रकृति और खेती पर आधारित है। यह पर्व सिखाता है कि यदि हम प्रकृति का सम्मान नहीं करेंगे, तो भविष्य संकट में पड़ सकता है। आज जब जंगलों की कटाई, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएँ गंभीर हो रही हैं, करम परब का संदेश और भी प्रासंगिक हो गया है।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य और चुनौतियाँ
आज करम परब गाँवों से निकलकर शहरों और यहाँ तक कि विदेशों में बसे प्रवासी झारखंडियों तक पहुँच चुका है। स्कूल, कॉलेज और सांस्कृतिक मंचों पर इसके गीत और नृत्य प्रस्तुत किए जा रहे हैं, जिससे यह झारखंड की सांस्कृतिक पहचान बन गया है। हालाँकि इसके सामने चुनौतियाँ भी हैं—जंगलों की अंधाधुंध कटाई से करम वृक्ष दुर्लभ हो रहे हैं और आधुनिकता के कारण दिखावे व फिजूलखर्च की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यदि इन पर ध्यान नहीं दिया गया, तो परब अपनी मौलिकता खो सकता है।
निष्कर्ष
करम परब केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला और शिक्षा है। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में इसके माध्यम से पर्यावरण संरक्षण, लैंगिक समानता और सामाजिक समरसता पर जागरूकता फैलाई जा सकती है। यह परब हमें सिखाता है कि सच्चा सुख तकनीक या भौतिक साधनों में नहीं, बल्कि रिश्तों, प्रकृति और श्रम के सम्मान में है।
इस प्रकार, करम परब केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि एक जीवन-पद्धति है—जो प्रेम, प्रकृति और परिश्रम के समन्वय से जीवन को समृद्ध बनाता है।
(मिथलेश दास, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, राधा गोविन्द विश्वविद्यालय, रामगढ़, झारखंड)