Bangladesh का जन्म और असम का श्राप : शरणार्थियों के बोझ तले दबा एक राज्य

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Bangladesh के जन्म का बोझ असम पर

नव ठाकुरिया

1971 में पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक युद्ध में भारत ने ऐतिहासिक विजय हासिल की और बांग्लादेश एक नए राष्ट्र के रूप में सामने आया। किंतु इस विजय की सबसे भारी कीमत भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम को चुकानी पड़ी। लाखों शरणार्थियों का बोझ उस छोटे से राज्य पर ऐसा पड़ा कि आज तक वह दबाव महसूस करता है—और उसकी पुकार सुनने वाला कोई नहीं।

गरीबी से जूझते बांग्लादेश से लगी छिद्रपूर्ण सीमा, केंद्र और राज्य सरकारों की कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति, और असमिया समाज की वर्षों की चुप्पी ने हालात को और विकराल बना दिया। नतीजा यह कि पाँच दशक बाद भी असम शरणार्थी संकट की आग में झुलस रहा है।

नई दिल्ली की तत्कालीन केंद्र सरकार ने पूर्वी पाकिस्तान के स्वतंत्रता सेनानियों—मुक्ति वाहिनी—का समर्थन तो किया, पर युद्धोपरांत न तो नवगठित बांग्लादेश सरकार से शरणार्थियों की वापसी की औपचारिक मांग की, और न ही कोई ठोस रणनीति बनाई। फलस्वरूप 1985 के असम समझौते में अवैध प्रवासियों की पहचान के लिए 25 मार्च 1971 की तारीख को कट-ऑफ मानना पड़ा।

सरकार का तर्क था कि ढाका अपने नागरिकों को वापस लेने को तैयार नहीं था। ऐसे में अधिकतर मुस्लिम प्रवासियों को भारत से निर्वासित करना असंभव हो गया। अंततः असम आंदोलनकारियों को दबाव में इन्हें भारतीय नागरिक मानना पड़ा। बड़ा सवाल यह है कि ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन ने उस समय संसद में बहस और औपचारिक समझौते पर जोर क्यों नहीं दिया? क्यों असम अकेले इस ऐतिहासिक बोझ तले दबा रहा?

विडंबना यह रही कि संसद ने चुप्पी साध ली, मीडिया मौन रहा और देश का बुद्धिजीवी वर्ग भी असमिया समाज पर थोपे गए अन्याय के खिलाफ नहीं बोला। लगभग 25 लाख पूर्वी पाकिस्तानी अवैध रूप से भारतीय बन बैठे और बाकी देश ने इसकी गंभीरता पर ध्यान ही नहीं दिया। सच यह है कि यदि असम इस बोझ से टूटेगा, तो उसका असर पूरे भारत में महसूस होगा।

औरों की तो बात छोड़िए, असम के अपने बुद्धिजीवी, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता भी समय रहते इस संकट को उजागर न कर सके। आंदोलन और राजनीति में लगभग सभी ने लाभ उठाया—सिवाय असमिया समाज के, जो आज भी न्याय की तलाश में भटक रहा है। अब यही खतरा धीरे-धीरे देश के अन्य हिस्सों तक फैलने लगा है।

हाल ही में मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा कि बांग्लादेश का निर्माण केवल आधी सफलता थी। असली अवसर तब गँवाया गया, जब भारत शरणार्थियों की वापसी और जनसांख्यिकीय संतुलन सुनिश्चित करने में विफल रहा।

भारत ने सैन्य दृष्टि से अद्भुत विजय पाई—पाकिस्तान टूट गया और बांग्लादेश बना। मगर राजनीतिक नेतृत्व इस जीत को स्थायी रणनीतिक लाभ में नहीं बदल पाया। सरमा का कहना है, यदि इंदिरा गांधी आज जीवित होतीं, तो देश उनसे पूछता कि उन्होंने भारतीय सेना की निर्णायक जीत को क्यों गलत तरीके से संभाला।

भारत ने बांग्लादेश को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में खड़ा करने में मदद की, पर 1988 आते-आते ढाका ने इस्लाम को राजधर्म घोषित कर दिया। आज वहाँ राजनीतिक इस्लाम पनप रहा है, जो भारत के बलिदान की आत्मा को कमजोर कर रहा है।

स्थिति चिंताजनक है—बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी, जो कभी 20% से अधिक थी, अब घटकर महज़ 8% रह गई है। संगठित हिंसा और भेदभाव ने उन्हें मिटा दिया है।

सरमा ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा कि भारत सिलीगुड़ी कॉरिडोर (चिकन नेक) या रणनीतिक चटगांव बंदरगाह तक पहुँच के मुद्दे पर दबाव बना सकता था, लेकिन वह मौका खो दिया गया। आज असम, पूर्वोत्तर और पश्चिम बंगाल अनियंत्रित जनसांख्यिकीय बदलाव, राजनीतिक अस्थिरता और सामाजिक अशांति से जूझ रहे हैं।

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