धरती का तापमान जिस तेज़ी से बढ़ रहा है, वह अब केवल वैज्ञानिक चेतावनियों या शोधपत्रों तक सीमित नहीं रह गया है — यह मानव सभ्यता के अस्तित्व पर एक गंभीर संकट बन चुका है। जून 2024 और 2025 की शुरुआत में भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों में रिकॉर्ड तोड़ गर्मी दर्ज की गई। यह सिर्फ हीटवेव नहीं, बल्कि प्रकृति की सख्त चेतावनी थी: अगर अब भी हमने ठोस कदम नहीं उठाए, तो भविष्य हमारे लिए और हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए विनाशकारी हो सकता है।
भारत में राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों से 50 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान की खबरें लगातार आ रही हैं। अमेरिका का कैलिफ़ोर्निया, मैक्सिको के रेगिस्तानी इलाके, यूरोप के स्पेन और इटली, और पश्चिमी एशिया — सभी जगह मौसम की असामान्य स्थितियां दर्ज की जा रही हैं। यह असामान्यता केवल मौसमी नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन की वह हकीकत है जिसे अब नकारना संभव नहीं रहा।
जलवायु वैज्ञानिकों के अनुसार, वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि — जिसकी आशंका पहले 2100 तक जताई गई थी — अब 2030 तक सच्चाई बनती दिख रही है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) की छठी रिपोर्ट साफ कहती है कि मौजूदा उत्सर्जन दर बनी रही, तो 2050 तक औसत तापमान 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। इससे समुद्र का जलस्तर खतरनाक रूप से बढ़ेगा, मौसम चक्र अस्थिर होंगे, और कृषि, जल आपूर्ति, मानव स्वास्थ्य तथा जीविका के सभी आधार चरम दबाव में आ जाएंगे।
आज की यह असहनीय गर्मी सिर्फ सूर्य की तीव्रता नहीं, बल्कि हमारी गलत नीतियों का परिणाम है — अनियंत्रित शहरीकरण, हरियाली का ह्रास, और कार्बन आधारित विकास मॉडल इसकी बड़ी वजहें हैं। दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, भोपाल जैसे शहरों में शहरी ताप द्वीप प्रभाव (Urban Heat Island Effect) और पेड़-पौधों की कमी ने स्थिति और गंभीर बना दी है। देश के 100 से अधिक शहरों में गर्मी से मृत्यु के मामले सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल का संकेत दे रहे हैं।
इस संकट से निपटने के लिए केवल स्थानीय उपाय काफी नहीं होंगे। यह एक वैश्विक समस्या है जिसे वैश्विक समाधान और साझा जिम्मेदारियों से ही हल किया जा सकता है। विकसित और विकासशील देशों को जलवायु न्याय के सिद्धांत के तहत ठोस समझ बनानी होगी। भारत जैसे देशों के सामने दोहरी चुनौती है — विकास की जरूरत और पर्यावरणीय संतुलन।
भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पेरिस समझौते के तहत 2030 तक अपनी 50% बिजली गैर-जीवाश्म ऊर्जा स्रोतों से प्राप्त करने और 2070 तक नेट ज़ीरो उत्सर्जन का लक्ष्य रखा है। हालांकि, ज़मीनी स्तर पर इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अपेक्षित गति और नीति-निष्ठा अभी तक नहीं दिख रही।
हमें पर्यावरण को वैकल्पिक नहीं, बल्कि विकास, राष्ट्रीय सुरक्षा और जनकल्याण का मूलभूत स्तंभ मानना होगा। केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर ‘ग्रीन बजटिंग’ अपनानी चाहिए — हर मंत्रालय को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनकी योजनाएं पर्यावरण को कितना लाभ या नुकसान पहुँचा रही हैं। स्मार्ट सिटी विकास में हरित क्षेत्र का न्यूनतम मानक तय किया जाना चाहिए।
ग्रामीण क्षेत्रों में वर्षा जल संचयन, पारंपरिक जल स्रोतों का पुनर्जीवन, देशी वृक्षों का रोपण और टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देना होगा। योजनाएं जैसे मनरेगा को पर्यावरणीय कार्यों से जोड़कर ‘ग्रीन जॉब्स’ के रूप में बदला जा सकता है।
लेकिन सिर्फ भारत नहीं, जब तक वैश्विक संस्थाएं — जैसे विश्व बैंक, IMF, G20 और UNEP — जलवायु वित्त को पारदर्शी और समयबद्ध रूप में विकासशील देशों तक नहीं पहुंचातीं, तब तक संतुलन बनना मुश्किल है। ज़रूरत है एक अंतरराष्ट्रीय जलवायु प्राधिकरण की, जो सभी देशों की जलवायु नीतियों की निगरानी करे और उल्लंघन पर दंड लगा सके।
शिक्षा और जागरूकता भी सबसे बड़ा हथियार है। स्कूलों-कॉलेजों में पर्यावरण को वैकल्पिक नहीं, जीवन-मूल्य के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए। विश्वविद्यालयों में ‘क्लाइमेट स्टडी सेंटर्स’ और इंटरडिसिप्लिनरी रिसर्च को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। साथ ही जन-आंदोलनों को भी विरोध से आगे बढ़कर समाधान-केन्द्रित संवाद में बदलना होगा।
भारत की परंपरा ‘चिपको आंदोलन’ और ‘नर्मदा बचाओ’ जैसे पर्यावरणीय संघर्षों की रही है। आज इन आंदोलनों की भावना को डिजिटल युग में सामूहिक वृक्षारोपण, ग्रीन इनोवेशन, पर्यावरण-संवेदनशील उपभोग और सतत पर्यटन जैसे प्रयासों में बदलने की ज़रूरत है।
अब समय है कि हम सिर्फ ‘धधकते भविष्य’ की चिंता न करें — बल्कि उसे ठंडा करने के लिए मिलकर ठोस कदम उठाएं।
(लेखक: आदित्य वर्मा, शोधार्थी, अंतरराष्ट्रीय संबंध, लखनऊ विश्वविद्यालय)