कूटनीति या अलगाव: ईरान-इज़राइल संकट में SCO से भारत की दूरी

 

ईरान और इज़राइल के बीच हालिया युद्ध के हालातों ने वैश्विक भू-राजनीतिक संतुलन को एक बार फिर अस्थिर कर दिया है, और इस संकट की छाया में भारत की विदेश नीति का एक अहम पहलू उभर कर सामने आया है—शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की बैठक से भारत का दूरी बना लेना। यह निर्णय अचानक नहीं है, बल्कि यह उस परिपक्व कूटनीतिक सोच का परिणाम है जो आज के भारत को एक जिम्मेदार, बहुपक्षीय और संतुलित वैश्विक खिलाड़ी के रूप में स्थापित करती है।

ईरान-इज़राइल युद्ध पश्चिम एशिया को विस्फोटक बना चुका है, जहां भारत के दोनों पक्षों से व्यापारिक, सांस्कृतिक और कूटनीतिक संबंध रहे हैं। इज़राइल भारत का रणनीतिक रक्षा सहयोगी है, तो ईरान उसके ऊर्जा सुरक्षा का ऐतिहासिक स्रोत। ऐसे में किसी भी पक्ष के प्रति स्पष्ट झुकाव भारत की संतुलनकारी विदेश नीति को खतरे में डाल सकता था, विशेष रूप से तब जब SCO जैसे संगठन में ईरान अब पूर्णकालिक सदस्य बन चुका है। भारत की गैर-हाजिरी को केवल एक ‘डिप्लोमैटिक स्नब’ कहना स्थिति का सरलीकरण होगा, क्योंकि इसके पीछे कई स्तरों पर रणनीतिक चिंतन और दीर्घकालिक समीकरण काम कर रहे हैं।

भारत की विदेश नीति अब “गुटनिरपेक्षता 2.0” की दिशा में है, जहां वह अमेरिका, यूरोप, रूस, ईरान और इज़राइल जैसे विपरीत हितों वाले देशों से अपने हितों के आधार पर द्विपक्षीय संबंध बनाता है। भारत ने SCO के मंच पर अतीत में चीन और पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद के मुद्दे पर दोहरे मापदंडों को लेकर आपत्ति जताई थी, और ऐसे मंच से दूरी बनाना, जहां रणनीतिक विरोधी जैसे चीन और पाकिस्तान निर्णायक भूमिका में हों, भारत की कूटनीतिक प्राथमिकताओं के पुनः निर्धारण का संकेत देता है।

इसके साथ ही, यह निर्णय एक प्रतीकात्मक संदेश भी देता है कि भारत मध्य-एशिया या पश्चिम एशिया की जटिल राजनीति में बिना सोचे-समझे भागीदार बनने को तैयार नहीं है। भारत के इस रुख को एक ‘कूटनीतिक चुप्पी’ कह कर नहीं नकारा जा सकता, बल्कि यह एक ऐसी ‘रणनीतिक चुप्पी’ है जो वैश्विक परिस्थितियों के स्थिर होने तक अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं करना चाहती। भारत की यह चुप्पी एक तरह से सक्रिय कूटनीति का हिस्सा है, जिसमें वह वैश्विक मंचों पर संतुलन बनाकर अपनी स्वतंत्र विदेश नीति को सुरक्षित रखता है।

SCO जैसी संस्था में रूस, चीन, ईरान और पाकिस्तान जैसे शक्तिशाली लेकिन अक्सर भारत-विरोधी रुख रखने वाले देशों की उपस्थिति भारत के लिए हमेशा चुनौती रही है। ऐसे में वर्तमान संकट के दौर में जब इज़राइल और ईरान आमने-सामने हों, और भारत दोनों से कूटनीतिक और रक्षा संबंध बनाए रखना चाहता हो, तो भारत की अनुपस्थिति एक समझदारीभरा कदम लगती है। साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि भारत ने SCO में अतीत में जब भी नेतृत्व किया, जैसे कि 2023 में भारत की अध्यक्षता के दौरान, उसने आतंकवाद, कनेक्टिविटी और संप्रभुता जैसे मुद्दों पर स्पष्ट और मजबूती से अपने विचार रखे। अब जबकि वैश्विक राजनीति बहुध्रुवीय होती जा रही है, भारत का यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि वह अब केवल भाग लेने भर के लिए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मौजूद नहीं रहना चाहता, बल्कि अपनी रणनीतिक प्राथमिकताओं और मूल्यों के आधार पर भागीदारी तय करेगा।

इस समय जब वैश्विक दक्षिण (Global South) अपनी आवाज़ बुलंद कर रहा है और अमेरिका-यूरोप तथा चीन-रूस ध्रुवों के बीच तीसरा रास्ता तलाश रहा है, भारत की यह पोजीशनिंग उसी उभरते नेतृत्व की अभिव्यक्ति है। यह भी ध्यान देना ज़रूरी है कि SCO की विश्वसनीयता और प्रभावशीलता भी अब सवालों के घेरे में है। आंतरिक असहमतियों, सदस्य राष्ट्रों की विपरीत विदेश नीतियों और मंच पर चीन के प्रभुत्व को लेकर कई सदस्य राष्ट्र असहज हैं। भारत की अनुपस्थिति इस बात का भी सूचक है कि वह अब केवल ‘सदस्यता की खातिर सदस्यता’ के उसूल पर नहीं चलना चाहता। यह वही भारत है जो QUAD, I2U2, ब्रिक्स और G-20 जैसे मंचों पर समान गति से सक्रिय है, लेकिन अपनी प्राथमिकताओं और अवसरों के आधार पर सहभागिता का चुनाव करता है। भारत का यह रुख इस दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है कि वह अपने घरेलू और क्षेत्रीय हितों के बीच संतुलन बना रहा है।

पश्चिम एशिया में कोई भी अस्थिरता भारत के ऊर्जा आयात, प्रवासी भारतीयों की सुरक्षा और व्यापारिक हितों पर असर डाल सकती है। ऐसे में भारत की चुप्पी वास्तव में उसके नागरिकों और अर्थव्यवस्था को प्राथमिकता देने की नीति है। इसके साथ ही यह वैश्विक समुदाय को यह स्पष्ट संकेत भी देती है कि भारत अब केवल प्रतिक्रियात्मक नहीं, बल्कि ‘पूर्व-सक्रिय’ (proactive) और ‘सिद्धांत-आधारित’ विदेश नीति अपना रहा है। भारत की यह दूरी दरअसल एक रणनीतिक समीकरण है, जो उसे पश्चिम और पूरब दोनों के साथ संवाद बनाए रखने की सुविधा देता है।

SCO जैसे मंच से दूरी बनाना यह संकेत भी देता है कि भारत अब चीन की अगुवाई वाले किसी भी संगठन में अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करने को तैयार है, खासकर तब जब ये संगठन भारत की सुरक्षा, संप्रभुता और हितों को चुनौती दें। और यह भी उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति हमेशा से “भारत फर्स्ट” दृष्टिकोण पर आधारित रही है, जिसमें निर्णय भावनाओं के नहीं, बल्कि रणनीतिक हितों के आधार पर लिए जाते हैं। SCO से दूरी कोई पलायन नहीं है, बल्कि यह एक स्वायत्त विदेश नीति का प्रतीक है, जिसमें भारत अपने मूल्यों, हितों और रणनीतिक लक्ष्यों के अनुरूप निर्णय लेता है।

यह रुख न केवल भारत को बड़ी शक्ति बनने की दिशा में आगे ले जाता है, बल्कि उसे एक ऐसे जिम्मेदार और विवेकपूर्ण राष्ट्र के रूप में भी स्थापित करता है जो विश्व शांति, स्थिरता और संतुलन की दिशा में सोच-समझकर कदम बढ़ाता है। आने वाले दिनों में जब ईरान-इज़राइल संकट और गहरा होगा, तब वैश्विक बिरादरी भारत के इस ‘मौन निर्णय’ को और बेहतर समझ पाएगी, क्योंकि चुप रहना हमेशा कमजोरी नहीं होता—कभी-कभी यह सबसे बड़ी ताकत और समझदारी का संकेत होता है।

(लेखक : आदित्य वर्मा, शोधार्थी )

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