पूर्वोत्तर भारत: पत्रकारिता, आचारनीति और कवरेज का दायरा

— नव ठाकुरिया

क्या यह नैतिक या तार्किक रूप से उचित है कि किसी दैनिक अख़बार का संपादक नियमित रूप से किसी दूसरे दैनिक अख़बार में कॉलम लिखे—ख़ासकर तब, जब दोनों अख़बार एक ही भाषा और एक ही क्षेत्र से प्रकाशित हो रहे हों? क्या यह स्थिति अप्रत्यक्ष रूप से यह संकेत नहीं देती कि वह संपादक अपने ही अख़बार की दृश्यता (Visibility) बढ़ाने में असफल रहा और इसलिए उसने अपेक्षाकृत अधिक प्रसार और विश्वसनीयता वाले दूसरे अख़बार में जगह बनाने की कोशिश शुरू की?

हाल ही में इस मुद्दे पर देशभर के पेशेवर पत्रकारों के बीच चर्चा हुई। अधिकतर का मानना था कि यदि दोनों अख़बारों के प्रबंधन (यानी मालिक) सहमत हों, तो संपादक द्वारा अलग-अलग संस्थानों में कॉलम लिखना स्वीकार्य है। हालाँकि, यदि किसी संस्थान का संपादकीय प्रबंधन किसी कॉलम को बंद करने का निर्णय ले, तो उस निर्णय को सहजता से स्वीकार करना चाहिए। इसी तरह, यदि किसी संपादक द्वारा किसी कॉलमिस्ट को विशेष कवरेज क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा जाए, तो इसे उसका संपादकीय अधिकार माना जाना चाहिए—न कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सेंसरशिप। आखिरकार, भले ही किसी संपादक-कॉलमिस्ट को उस अख़बार में लिखने का अवसर न मिले, पर उसे कहीं और, यहाँ तक कि अपने ही अख़बार में, मनचाहे मुद्दों पर लिखने का अधिकार बरकरार रहता है।

पैट्रिशिया मुखीम विवाद से बहस की शुरुआत

इस बहस की शुरुआत मेघालय की वरिष्ठ और पुरस्कार विजेता पत्रकार पैट्रिशिया मुखीम (संपादक, द शिलॉन्ग टाइम्स, स्थापित 10 अगस्त 1945) के सोशल मीडिया पोस्ट से हुई। उन्होंने आरोप लगाया कि द असम ट्रिब्यून (प्रकाशन आरंभ 4 अगस्त 1939) ने अचानक उनका नियमित कॉलम बंद कर दिया।

‘End of a journey with the Assam Tribune’ शीर्षक के तहत उन्होंने लिखा—
“करीब एक दशक पहले, 2014 से पहले ही, असम ट्रिब्यून के तत्कालीन संपादक ने मुझसे पखवाड़े में एक कॉलम लिखने का आग्रह किया था। मैंने सहमति दी क्योंकि यह अख़बार स्वतंत्र और बेबाक विचारों को महत्व देता था। कल मैंने एक लेख भेजा जिसमें असम के मुख्यमंत्री और उनके विवादास्पद कदमों—ख़ासकर बेदखली अभियान—की आलोचना थी। यह अभियान केवल अवैध प्रवासियों के ख़िलाफ़ नहीं था (जो क़ानूनन उचित है), बल्कि विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय को निशाना बना रहा था। मुझे संपादकीय टीम से संदेश मिला कि ‘प्रबंधन कहता है कि यह लेख प्रकाशित नहीं किया जा सकता और आपको केवल मेघालय से जुड़े मुद्दों पर ही लिखना है।’ यह निर्देश पहले कभी नहीं दिया गया था, जबकि मैं हमेशा पूरे क्षेत्र के मुद्दों पर लिखती रही हूँ। तब मुझे एहसास हुआ कि वही हो रहा है, जिसका डर था—मुख्यधारा का मीडिया, कुछ साहसी संस्थानों को छोड़कर, वर्तमान सत्ता के विरुद्ध कुछ भी प्रकाशित करने से कतराता है। मुझे क्या लिखना है और कैसे लिखना है, यह बताना तानाशाही का संकेत है। बंधनों में बँधकर लिखने से बेहतर है स्वतंत्र रहना।”

परांजॉय गुहा ठाकुरता की प्रतिक्रिया

नई दिल्ली से बातचीत में स्वतंत्र पत्रकार, लेखक और प्रकाशक परांजॉय गुहा ठाकुरता ने कहा—
द शिलॉन्ग टाइम्स के संपादक को द असम ट्रिब्यून के लिए लिखना चाहिए या नहीं, यह दोनों प्रकाशनों के मालिकों/प्रकाशकों के बीच तय होने वाली बात है। यदि दोनों सहमत हों, तो इसमें कोई अनैतिकता नहीं है। अमेरिका में यह समय-समय पर होता है—जैसे न्यूयॉर्क टाइम्स के प्रमुख ने वॉशिंगटन पोस्ट के लिए भी लिखा है। भारत में यह प्रथा आम नहीं है। जहाँ तक किसी लेख को स्वीकार या अस्वीकार करने का प्रश्न है, यह संपादक/प्रकाशक का अधिकार है। मेरा मानना है कि मुखीम जी इस बात से आहत हैं कि उनका लेख जिस तरह अस्वीकार किया गया, और यह संदेश उन्हें किसी कनिष्ठ कर्मचारी के माध्यम से दिया गया। उन्होंने उचित रूप से आहत होकर कहीं और इसे प्रकाशित कर, एक दशक पुराने संबंध को समाप्त करने का सही निर्णय लिया।”

आलोचना में पक्षपात का आरोप

मेघालय के एक वरिष्ठ पत्रकार (नाम न बताने की शर्त पर) ने कहा—
“मुखीम जी कई अख़बारों में कॉलम लिखती रही हैं और अक्सर भाजपा एवं उसके नेताओं—ख़ासकर असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा—की आलोचना करती रही हैं। लेकिन अपने गृह राज्य में उन्होंने मेघालय सरकार से सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखे। वर्तमान में जब कॉनराड के. संगमा (नेशनल पीपल्स पार्टी) मेघालय की सत्ता में हैं और भाजपा उनकी सहयोगी है, मुखीम जी ने कई अहम मुद्दों पर नरमी दिखाई है। यह स्पष्ट नहीं है कि असम ट्रिब्यून भाजपा विरोधी लेख छापने से डर रहा था या वह लेखक के एनपीपी सरकार के प्रति झुकाव को उजागर करना चाहता था—केवल मेघालय मुद्दों तक सीमित रखने के निर्देश देकर।”

‘प्रो-एस्टैब्लिशमेंट सेंसरशिप’ पर बहस

मुंबई प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष गुरबीर सिंह ने कहा—
“यदि कोई प्रकाशन किसी लेखक को नियमित कॉलम लिखने का अवसर देता है, तो संपादक को यह तय नहीं करना चाहिए कि वह किन विषयों पर लिख सकता है और किन पर नहीं—इसे ‘प्रो-एस्टैब्लिशमेंट सेंसरशिप’ कहा जा सकता है। हालाँकि, यदि कोई लेखक अपने राज्य की सरकार के प्रति नरम और दूसरे राज्य की सत्ता के प्रति कठोर है, तो यह मुद्दा अलग है और इसे किसी अन्य मंच पर उठाया जा सकता है।”

असम ट्रिब्यून की मौन प्रतिक्रिया और चुनौतियाँ

इस विवाद पर असम ट्रिब्यून प्रबंधन ने कोई टिप्पणी नहीं की है। हालाँकि, यह भी सच है कि कभी प्रतिष्ठित माने जाने वाले इस मीडिया समूह की आर्थिक हालत बेहद ख़राब है। कर्मचारियों को समय पर वेतन न मिलना आम हो गया है। कर्मचारी यूनियन का कहना है कि दो महीने तक वेतन बकाया रहा, जिसका कारण प्रबंधन ने असम सूचना एवं जनसंपर्क निदेशालय से करोड़ों रुपये के विज्ञापन भुगतान में देरी बताया।

एक समय यह समूह अपनी विश्वसनीय संपादकीय नीति के लिए जाना जाता था—जैसे असम में सीएए-विरोधी आंदोलन का समर्थन करना या केंद्र की नागरिकता पहल के विरोध को प्रमुखता देना। लेकिन हाल के वर्षों में इसकी साख को धक्का पहुँचा है—चाहे वह अपुष्ट रिपोर्टों के प्रकाशन का मामला हो, जिससे किसी व्यक्ति की छवि धूमिल हुई, या फिर आंतरिक प्रबंधन की कमज़ोर पकड़। आज इसकी गिरती स्थिति में कुछ घमंडी कर्मचारियों की भूमिका और प्रबंधन की निष्क्रियता दोनों ही ज़िम्मेदार माने जाते हैं।

(लेखक पूर्वोत्तर भारत के वरिष्ठ पत्रकार तथा दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के मामलों के जानकार हैं। संपर्क: 9864044917)

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