पर्यावरणीय समस्याएं: प्राकृतिक संकट से स्वास्थ्य आपदा की ओर

प्रकृति और मानव स्वास्थ्य के बीच सदा से एक गहरा और जीवंत संबंध रहा है। जब पर्यावरण संतुलित और शुद्ध होता है, तब जीवन सुरक्षित, रोगमुक्त और समृद्ध होता है। किंतु वर्तमान में तथाकथित विकास की अंधी दौड़, अंधाधुंध शहरीकरण, औद्योगीकरण, जैविक और रासायनिक हथियारों की होड़, तथा उपभोक्तावाद की प्रवृत्तियों ने प्रकृति को संकट की कगार पर पहुँचा दिया है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्पष्ट रूप से चेताया है कि 21वीं सदी की पर्यावरणीय समस्याएं अब केवल “प्राकृतिक संकट” नहीं रहीं — वे एक “वैश्विक स्वास्थ्य आपदा” का रूप ले चुकी हैं। पर्यावरण की उपेक्षा अब सीधे हमारे स्वास्थ्य, जीवन प्रत्याशा और आने वाली पीढ़ियों की स्थिरता को चुनौती दे रही है।

आज विश्व वायु, जल, मृदा, आकाश एवं ध्वनि प्रदूषण; जैवविविधता का क्षरण; वनों की अंधाधुंध कटाई; जलवायु परिवर्तन; तथा कचरा प्रबंधन (जैसे प्लास्टिक, ई-वेस्ट, चिकित्सा व औद्योगिक अपशिष्ट) जैसी गहन पर्यावरणीय समस्याओं से जूझ रहा है। ये संकट न केवल पारिस्थितिक असंतुलन को जन्म दे रहे हैं, बल्कि प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति और तीव्रता में भी अप्रत्याशित वृद्धि कर रहे हैं, जिसका प्रत्यक्ष असर मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहा है।

शहरी क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता के निम्न स्तर ने पीएम 2.5 और पीएम 10 जैसे सूक्ष्म कणों की उपस्थिति के कारण दमा, ब्रोंकाइटिस, एलर्जी, हृदयाघात और कैंसर जैसे रोगों को बढ़ावा दिया है। वहीं जलस्रोतों के प्रदूषण से हैजा, टाइफाइड, हेपेटाइटिस, डायरिया और पथरी जैसे जलजनित रोगों के मामलों में लगातार वृद्धि देखी जा रही है। कृषि में रासायनिक कीटनाशकों, उर्वरकों और संरक्षक रसायनों के अत्यधिक प्रयोग से अब केवल मिट्टी ही नहीं, बल्कि संपूर्ण खाद्य श्रृंखला विषाक्त हो गई है, जिसके दुष्परिणाम कैंसर, हार्मोनल असंतुलन, मानसिक विकार और प्रजनन समस्याओं के रूप में सामने आ रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन के कारण वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि ने रोगाणुओं में उत्परिवर्तन की गति को तीव्र कर दिया है, जिससे वे और अधिक संक्रामक और घातक होते जा रहे हैं। पहले जिन क्षेत्रों में मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया और जूनोटिक रोग नहीं पाए जाते थे, वहां भी अब इनके मामले सामने आ रहे हैं। जैविक हथियारों के विकास के लिए किए जा रहे शोध ने कोरोना जैसी महामारी और उससे उत्पन्न वैश्विक स्वास्थ्य संकट को जीवन्त बनाये रखा है।

शहरी जीवनशैली, तेजी से फैलता शहरीकरण, हरियाली की कमी, विविध प्रदूषण और तापमान में असामान्यता ने मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा आघात किया है। तनाव, अवसाद, अनिद्रा, और एकाकीपन जैसी समस्याएं दिन-प्रतिदिन बढ़ रही हैं। साथ ही, युद्ध और सैन्य संघर्षों से समुद्री तेल रिसाव, विस्फोट, आगजनी, रेडियोधर्मी प्रभाव और विस्थापन जैसी समस्याएं जन्म ले रही हैं, जो मानवता और पर्यावरण दोनों के लिए विध्वंसकारी सिद्ध हो रही हैं।

चेतना, तकनीक और संयम की त्रिवेणी में ही इन जटिल चुनौतियों का समाधान निहित है।
हमें विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन स्थापित करने के लिए ग्रीन टेक्नोलॉजी, नवीकरणीय ऊर्जा और सतत कचरा प्रबंधन को प्राथमिकता देनी होगी। ‘पाँच-आर’ (Reduce, Reuse, Recycle, Refuse, Recover) की नीति को व्यवहार में लाना और जनसामान्य में पर्यावरणीय चेतना जाग्रत करना आज की महती आवश्यकता है।

सरकारों को चाहिए कि वे पर्यावरणीय कानूनों को कठोर बनाएं और उनके क्रियान्वयन में इच्छाशक्ति दर्शाएं। लेकिन केवल नीतियां पर्याप्त नहीं हैं — जब तक हर नागरिक अपने आचरण और उपभोग की प्रवृत्तियों में बदलाव नहीं लाएगा, तब तक समाधान अधूरा रहेगा। संवेदनशीलता और विवेक से ही भविष्य सुरक्षित रह सकता है।

भगवान बुद्ध ने प्रकृति से संसाधन लेते समय मधुमक्खी के व्यवहार को आदर्श बताया था — जो फूल से पराग लेते हुए उसके रंग, रूप या सुगंध को क्षति नहीं पहुँचाती। महात्मा गांधी ने भी यही बात कही थी — “प्रकृति हर व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति कर सकती है, लेकिन किसी एक के लालच की नहीं।”

इसलिए प्रकृति के दोहन में संयम, विवेक और मितव्ययिता अनिवार्य है। जब तक हमारी जीवनशैली प्रकृति के अनुकूल नहीं होगी, जैविक आहार, सार्वजनिक परिवहन, वृक्षारोपण, जल संरक्षण और पारिस्थितिकी के साथ सह-अस्तित्व जैसे कार्यों को हम अपने जीवन का हिस्सा नहीं बनाएंगे — तब तक कोई भी प्रयास अधूरा रहेगा।

यह भी उतना ही सत्य है कि पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान किसी एक देश, संस्था या व्यक्ति से नहीं हो सकता। इसके लिए वैश्विक सहयोग, नीति समन्वय, जन-जागरूकता और सतत स्वास्थ्य ढांचे की आवश्यकता है। प्रत्येक राष्ट्र — चाहे वह विकसित हो या विकासशील — को स्वच्छ ऊर्जा, पर्यावरणीय अनुकूलता और भावनात्मक उत्तरदायित्व को अपने विकास मॉडल में सम्मिलित करना होगा।

प्रकृति को केवल भोग की वस्तु नहीं, बल्कि एक जीवंत सत्ता तथा देवत्व के रूप में सम्मान देने का समय आ गया है। प्रकृति की रक्षा में ही मानवता की रक्षा निहित है।

(लेखक: प्रो. (डा.) मनमोहन प्रकाश, पर्यावरणविद्)

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