इलाहाबाद हाईकोर्ट (HC): ‘सर तन से जुदा’ नारा भारत की संप्रभुता और कानूनी व्यवस्था को चुनौती
प्रयागराज: इलाहाबाद उच्च न्यायालय (Allahabad High Court) की एकल पीठ ने शुक्रवार को अपने अहम फैसले में कहा कि “गुस्ताख़-ए-नबी की एक सज़ा, सर तन से जुदा” जैसा नारा लगाना भारत की कानून व्यवस्था, संप्रभुता और अखंडता के खिलाफ सीधी चुनौती है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह नारा हिंसा को उकसाने वाला है और लोगों को सशस्त्र विद्रोह की ओर प्रेरित कर सकता है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की यह टिप्पणी न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल की एकल पीठ द्वारा पारित आदेश में की गई।
मामले की पृष्ठभूमि
यह आदेश रिहान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में जमानत याचिका की सुनवाई के दौरान पारित किया गया। यह मामला 26 मई 2025 को बरेली में हुई एक हिंसक घटना से जुड़ा है। आरोप है कि नमाज़ के बाद इस्लामिया इंटर कॉलेज के परिसर में 500 से अधिक लोगों की अवैध भीड़ एकत्र हुई, जहां कथित तौर पर आपत्तिजनक और राष्ट्रविरोधी नारे लगाए गए।
पुलिस द्वारा निषेधाज्ञा लागू करने की कोशिश के दौरान स्थिति हिंसक हो गई। पथराव, पेट्रोल बम फेंकने, फायरिंग और सरकारी व निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की घटनाएं सामने आईं। मौके से सात लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें जमानत आवेदक रिहान भी शामिल था।
न्यायालय की मुख्य टिप्पणियां
न्यायालय ने कहा कि यह नारा किसी भी प्रकार से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या धार्मिक आस्था के संरक्षण के दायरे में नहीं आता। अदालत के अनुसार—
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इस नारे का किसी भी मान्य धार्मिक ग्रंथ या स्थापित धार्मिक परंपरा में कोई आधार नहीं है।
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यह सीधे तौर पर ‘सिर कलम करने’ जैसी गैर-कानूनी और असंवैधानिक सज़ा की वकालत करता है, जो भारतीय दंड व्यवस्था के विपरीत है।
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सामूहिक रूप से ऐसे नारे लगाना सार्वजनिक अशांति और सशस्त्र विद्रोह को बढ़ावा दे सकता है।
अदालत ने स्पष्ट किया कि इस तरह का कृत्य भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 के अंतर्गत दंडनीय है, जो भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्यों से संबंधित है। इस धारा के तहत 7 वर्ष तक की सज़ा और जुर्माने का प्रावधान है।
धार्मिक नारों के दुरुपयोग पर टिप्पणी
पीठ ने यह भी कहा कि सभी धर्मों में कुछ सामान्य नारे प्रचलित हैं, जैसे “अल्लाहु अकबर” या “जय श्री राम”, जो अपने आप में हिंसा या संविधान के खिलाफ नहीं होते। इसके विपरीत, “सर तन से जुदा” जैसा नारा सीधे तौर पर हत्या और कानून से बाहर सज़ा की बात करता है।
न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि इस नारे का इस्लाम की मूल शिक्षाओं या क़ुरान से कोई संबंध नहीं है और इसे कुछ लोग बिना इसके अर्थ और प्रभाव को समझे दुरुपयोग कर रहे हैं।
जमानत से इनकार
मामले के रिकॉर्ड और केस डायरी के अवलोकन के बाद अदालत ने पाया कि जमानत आवेदक अवैध भीड़ का हिस्सा था और हिंसक गतिविधियों में संलिप्तता के प्रथमदृष्टया साक्ष्य मौजूद हैं। इस आधार पर न्यायालय ने जमानत देने से इनकार कर दिया।
फैसले का महत्व
यह फैसला धार्मिक भावनाओं की आड़ में हिंसक और धमकी भरे नारों के खिलाफ एक कड़ा न्यायिक संदेश माना जा रहा है। अदालत ने दोहराया कि संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा हिंसा, गैर-कानूनी सज़ा या राष्ट्र की संप्रभुता को चुनौती देने तक नहीं फैलता।

