लेखक: आदित्य वर्मा, शोधार्थी, अंतरराष्ट्रीय संबंध, लखनऊ विश्वविद्यालय
ईरान और इज़राइल के बीच बढ़ता हुआ टकराव अब एक व्यापक और जटिल मध्य पूर्वी युद्ध का रूप लेता जा रहा है। यह संघर्ष केवल दो देशों के बीच की सैन्य मुठभेड़ नहीं, बल्कि वर्षों पुरानी वैचारिक, धार्मिक और रणनीतिक प्रतिस्पर्धा का विस्फोटक परिणाम है, जिसने पूरे क्षेत्र को हिंसा, अस्थिरता और विनाश के चक्रव्यूह में झोंक दिया है।
प्रत्यक्ष संघर्ष की नई परछाइयाँ
हाल के महीनों में मिसाइल हमलों, ड्रोन हमलों, साइबर हमलों और सीधी सैन्य कार्रवाइयों ने इस संघर्ष को और भी जटिल बना दिया है। अप्रैल 2025 में हुए हमलों में तेल अवीव, दमिश्क और तेहरान जैसे शहरों को हाई अलर्ट पर ला दिया गया। इस बार यह संघर्ष प्रॉक्सी क्षेत्रों तक सीमित नहीं रहा—इज़राइल ने सीधे ईरानी परमाणु ठिकानों को निशाना बनाया, जबकि ईरान ने अपनी मिसाइलों से जवाब दिया। इससे उस रणनीतिक अस्पष्टता का अंत हो गया है जो अब तक किसी संतुलन को बनाए हुए थी।
रणनीतिक समीकरण: शक्ति और संतुलन का संघर्ष
ईरान वर्षों से हिज़्बुल्लाह, हौथी विद्रोहियों और इराक-सीरिया की शिया मिलिशियाओं को रणनीतिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करता रहा है। वहीं, इज़राइल की “पूर्व-निवारक प्रतिरोध” नीति साफ दर्शाती है कि वह अपने सैन्य व तकनीकी वर्चस्व को बनाए रखने के लिए आक्रामक रक्षा को प्राथमिकता देता है।
इस संघर्ष की सबसे बड़ी कीमत आम नागरिक चुका रहे हैं—सीरिया में फिर से विस्थापित शरणार्थी, गाज़ा और लेबनान में निशाना बनती जनता, और इज़राइल में बंकरों में जीवन बिताते नागरिक।
क्षेत्रीय अस्थिरता और वैश्विक अंतर्विरोध
सऊदी अरब, जिसने चीन की मध्यस्थता में 2023 में ईरान से संबंध सामान्य किए थे, आज रणनीतिक द्विधा में है—क्या वह इज़राइल का समर्थन करे या ईरानी प्रभाव के विस्तार को लेकर सतर्क रहे?
अमेरिका, जो पारंपरिक रूप से इज़राइल का प्रबल समर्थक रहा है, अब यूक्रेन, गाज़ा और घरेलू ध्रुवीकरण जैसे मुद्दों से जूझते हुए इस संघर्ष से दूरी बनाने की कोशिश कर रहा है। वहीं, रूस और चीन ने इज़राइल की कार्रवाइयों की आलोचना करते हुए ईरान को परोक्ष समर्थन दिया है।
परमाणु प्रसार की भयावह संभावना
JCPOA (संयुक्त व्यापक कार्य योजना) की विफलता और ईरान द्वारा यूरेनियम संवर्धन फिर से शुरू किए जाने के बाद, परमाणु हथियारों की दौड़ अब केवल सैद्धांतिक नहीं, बल्कि वास्तविक संकट बन गई है। इज़राइल के ‘अनक्लेम्ड’ परमाणु कार्यक्रम इस संतुलन को और अधिक खतरनाक बना देते हैं।
अगर कोई तकनीकी चूक, साइबर हमला या गलत निर्णय हुआ, तो इसका असर केवल पश्चिम एशिया नहीं, पूरी दुनिया को झकझोर सकता है।
पर्यावरणीय और आर्थिक संकट
होर्मुज़ जलडमरूमध्य में तनाव और तेल आपूर्ति की चिंता से वैश्विक बाज़ारों में उथल-पुथल है। मिस्र, जॉर्डन और यूएई जैसे देशों का पर्यटन उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुआ है, और विदेशी निवेश तेजी से घट रहा है।
भारत की कूटनीतिक चुनौती
भारत, जो इज़राइल और ईरान दोनों से गहरे रणनीतिक संबंध रखता है, एक बेहद नाजुक स्थिति में है। उसे ऊर्जा सुरक्षा, प्रवासी भारतीयों की सुरक्षा, और रक्षा सहयोग के बीच संतुलन बनाना है, साथ ही ईरान के साथ ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रिश्तों को भी बरकरार रखना है।
क्या युद्ध को रोका जा सकता है?
इस संघर्ष को रोकना अब केवल एक राजनीतिक प्राथमिकता नहीं, बल्कि मानवीय अनिवार्यता है। भारत, तुर्की, ब्राज़ील और जर्मनी जैसे तटस्थ देश एक विश्वसनीय मध्यस्थ के रूप में उभर सकते हैं। केवल सरकारें ही नहीं, बल्कि सिविल सोसाइटी, शांति प्रयासों से जुड़े संगठन और विस्थापित समुदायों को भी इस प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए।
यदि युद्ध की मानसिकता से ऊपर उठकर संवाद और सह-अस्तित्व की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं होती, तो आने वाली पीढ़ियाँ एक ऐसी दुनिया में जन्म लेंगी जहां शांति एक विलासिता और युद्ध सामान्य जीवनशैली बन जाएगा।
निष्कर्ष
ईरान और इज़राइल के बीच यह टकराव अब केवल दो देशों की दुश्मनी नहीं रह गया है, यह मध्य पूर्व की राजनीतिक, धार्मिक और सामरिक स्थिरता को बुनियादी रूप से चुनौती देता है। यह युद्ध न केवल क्षेत्रीय प्रभुत्व, बल्कि शिया-सुन्नी संघर्ष, अमेरिका-ईरान प्रतिस्पर्धा और वैश्विक ऊर्जा सुरक्षा से भी जुड़ा है।
अब भी समय है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस संघर्ष को केवल ‘डिफेंस ऑफ इज़राइल’ या ‘पनिश ईरान’ के द्वंद्वात्मक चश्मे से न देखे, बल्कि एक समग्र, समावेशी, और शांति-प्रधान ढांचा तैयार करे। वरना यह संघर्ष न केवल मध्य पूर्व को, बल्कि पूरी दुनिया को एक नए यूक्रेन या उससे भी बदतर परिदृश्य में धकेल सकता है।