भारत की आत्मा महात्मा गांधी के विचारों में बसती है। सत्य, अहिंसा, सादगी, स्वदेशी और सेवा का जो अमूल्य संदेश उन्होंने दिया, वही भारत की पहचान और स्वतंत्रता संग्राम की आधारशिला रहा। गांधी ने स्वयं कहा था “सत्य मेरा ईश्वर है और अहिंसा उसे पाने का साधन।” परंतु आज यह विडंबना है कि जिस देश ने उन्हें राष्ट्रपिता का दर्जा दिया, उसी देश के लोग उनके सिद्धांतों से धीरे-धीरे विमुख होते जा रहे हैं।गांधी जी ने राजनीति को नैतिकता से जोड़ा था। उनके शब्द थे “राजनीति बिना नैतिकता के शैतानी का रूप ले लेती है।” लेकिन आज राजनीति सत्ता-लोलुपता, धनबल और जातीय- सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का पर्याय बनती जा रही है। कई बार चुनावी घोषणाएँ वोट बैंक तक सीमित नज़र आती हैं और सेवा-भावना हाशिये पर है। आदर्श राजनीति, जिसे गांधी रामराज्य कहते थे, अवसरवाद और लोकलुभावन नारों के बोझ तले दबती दिखाई देती है।
सब जानते हैं कि अहिंसा गांधी के जीवन का मूल रहा है। उनका विश्वास था “अहिंसा मानवता का सर्वोच्च धर्म है।” लेकिन आज समाज में हिंसा और असहिष्णुता का बोलबाला नजर आता है। विचारों का मतभेद संवाद से नहीं, सोशल मीडिया की कटाक्षपूर्ण भाषा और कभी-कभी सड़क की हिंसा से तय होने लगा है। इस परिस्थिति में गांधी का सरल कथन आज भी चेतावनी की तरह गूंजता है “आँख के बदले आँख से पूरी दुनिया अंधी हो जाएगी।”
गांधी जी का मानना था कि भारत का हृदय गाँवों में बसता है। उन्होंने ग्राम स्वराज्य और आत्मनिर्भरता को राष्ट्रनिर्माण का मूल आधार बताया था। लेकिन आज ग्रामीण क्षेत्र शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की अपर्याप्त और बेहतर स्थिति से जूझ रहे हैं। शहरीकरण और उपभोक्तावाद के दबाव में गाँव पिछड़ेपन और पलायन की कसौटी बनते जा रहे हैं। जबकि गांधी जी की दृष्टि से असली विकास तभी संभव है जब गाँवों की आत्मा सशक्त बने।
चरखा, खादी और स्वदेशी गांधी के आर्थिक दर्शन की धुरी थे। उनका मानना था कि स्थानीय उत्पादन से ही गरीबी का निवारण संभव है और स्वाभिमान भी जागृत होता है। आज़ादी के आंदोलन के समय विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार ने यह सिद्ध करके भी दिखया है। किंतु आज उपभोक्तावादी संस्कृति और विदेशी वस्तुओं के प्रति आकर्षण ने स्वदेशी वस्तुओं से दूर रखा है।यह कहना भी गलत नहीं होगा कि ‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसे अभियानों के बावजूद सच्चा स्वदेशी अपनाने में समाज अभी भी आधा-अधूरा नजर आता है है।
गांधी जी का देशप्रेम केवल नारों या प्रतीकों तक सीमित नहीं था, बल्कि त्याग और सेवा की जीवनशैली में प्रकट होता था। उन्होंने कहा था “देश की सेवा करने के लिए व्यक्ति को अपने सुख-दुख का बलिदान करना पड़ता है।”आपके अनुसार सच्चा देशप्रेम राष्ट्रहित को व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर रखना है।
सब जानते हैं कि गांधी जी के सिद्धांतों ने न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया को प्रभावित किया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उन्हें “महात्मा” की उपाधि भी दी। अल्बर्ट आइंस्टीन ने लिखा था “आने वाली पीढ़ियाँ यह विश्वास नहीं कर पाएँगी कि ऐसा भी कोई व्यक्ति इस धरती पर रक्त-मांस का बना हुआ चलता-फिरता था।” मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला जैसे नेताओं ने मानवीय अधिकारों की लड़ाई में गांधी के अहिंसात्मक दर्शन से प्रेरणा ली।ये प्रमाण हैं कि गांधी केवल भारत के नहीं, बल्कि समस्त मानवता के पथप्रदर्शक थे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस बार भी हम गांधी जयंती पर उनके चित्रों पर माल्यार्पण करेंगे और करना भी चाहिए।साथ ही उनके विचारों को व्यवहार में उतारने के प्रयास भी करना चाहिए हैं। मेरे विचार में गांधी जी को असली श्रद्धांजलि तभी होगी जब हम अपने आचरण में सत्य और अहिंसा तथा सुचिता को स्थान दें,राजनीति में नैतिकता लाएँ, ग्राम विकास को प्राथमिकता दें, स्वदेशी उत्पादों को महत्व दें और त्याग-सेवा से ओतप्रोत जीवन जिएँ। गांधी जी का वाक्य “आप उस परिवर्तन का हिस्सा बनें जो आप दुनिया में देखना चाहते हैं”,हमारे लिए आज भी दिशा-सूचक है। यदि इसे अपनाया जाए तो गांधी के देश में गांधी के सिद्धांत किताबों तक सीमित नहीं रहेंगे, बल्कि जन-जन के जीवन को आलोकित करेगा और भारत को नई दिशा प्रदान करेंगे।
लेखक: प्रो.(डा.) मनमोहन प्रकाश

