लोक कल्याणकारी चिंतन ही साधु-संतों की पहचान बने

लेखक: डा मनमोहन प्रकाश
भारत में सनातन धर्म को मानने वालों की संख्या सर्वाधिक है,इस दृष्टि से बहुमत के आधार पर इसे सनातनी राष्ट्र कहा जा सकता है। सनातन  का मतलब है कि ईश्वरीय शक्ति में  विश्वास करना। देवी-देवताओं की शक्ति पर भरोसा करना। नियम, धर्म, तप, उपवास, पूजा-पाठ, प्रार्थना -अर्चना पर विश्वास करना तथा जीवन में सत्यं और अहिंसा को महत्व देना, धार्मिक ग्रंथों (रामायण, गीता,वेद,पुराण आदि)को सम्मान देना तथा मानव के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को आदर्श मानना, उनके बताए गये मार्ग पर चलने का प्रयास करना तथा कृष्ण के द्वारा गीता में दिए गए उपदेशों को जीवन जीने का मूल मंत्र समझना।
सनातन धर्म, संस्कार,संस्कृति के प्रचार-प्रसार में तथा मानव को सही मार्ग दिखाने में साधु-संतों की महत्वपूर्ण भूमिका है।मानव समाज मर्यादित आचरण करे, सत्य और अहिंसा का पालन करे,नियम-धर्म से चले आदि सीख देना साधु-संतों का प्रमुख काम रहा है। मनुष्य अटके-भटके नहीं, ग़लत आदतों के कुचक्र में नहीं फंसे, ग़लत राह पर जाने से बचे, इससे भी अगाह करना  संत समाज की जिम्मेदारी है। प्रश्न यह उठता है कि आज के समय में सच्चे साधु-संतों को समाज में कैसे पहचाना जाये? क्या इन्हें इनके विशिष्ट रंग के परिधान से पहचानना उचित है? क्या इन्हें विभिन्न प्रकार की रूप-सज्जा से पहचाना जा सकता है? क्या इन्हें इनके द्वारा बोली जाने वाली भाषा से पहचाना जा सकता है?
निश्चित रूप से केवल इन्हीं गुणों के आधार पर साधु-संतों को पहचानाना आज के परिवेश और परिस्थितियों में असंभव सा नजर आता है क्योंकि साधु-संतों की भेष-भूषा में नकली ,फरेब, आडंबर,ग़लत कार्यों में संलग्न व्यक्तियों ने प्रवेश कर लिया है जो समाज में व्याप्त आदर्श साधु-संतों की परंपरा को दूषित कर रहे हैं।कई ऐसे साधु-संतों को जेल की हवा भी खानी पड़ी है। कितने और ढोंगी साधु-संत समाज में घूम रहे होंगे कहना मुश्किल है। अतः सनातनियों की स्वयं की जिम्मेदारी है कि वह छद्म  साधु-संतों को पहचानें और उनसे दूर रहें, उनके द्वारा परोसे जा रहे छूठ,फरैब, अंधविश्वास , अवैज्ञानिक कृत्यों से बचें।
वास्तव में हमारी सनातन संस्कृति में अच्छा और सच्चा साधु-संत वह है जो -(1) सादगी और विनम्रता से युक्त हो (2) शास्त्रों और धर्म ग्रंथों का ज्ञाता हो (3) भौतिक सुख- सुविधाओं से दूर रहकर तप, ध्यान,योग में रत रहता हो(4) समानता का भाव रखता हो(5)अहंकार, प्रदर्शन, द्वेष या क्रोध से मुक्त हो (6) धैर्यवान और सहनशील हो (7)लाभ या प्रशंसा से परे नि:स्वार्थ सेवा अपना लक्ष्य रखता हो तथा जिसका चिंतन लोक कल्याणकारी हो(8)सत्य की रह पर चलते हुए,छल कपट, धोखा-धड़ी से दूर रहते हुए अपने आचरण से दूसरों को प्रेरित करने में सक्षम हो आदि।
आज भारत में सनातनी समाज विभिन्न सम्प्रदायों में, जाति, भाषा, भेष-भूषा, मठ-मंदिरों, स्थानों में बटा हुआ है जबकि अन्य धर्मालंबी एक जुट दिखाई देते है। शायद इसी कारण कोई भी ढोंगी, पाखंडी साधु-संत आसानी से सनातनियों में प्रवेश कर जाता है, कोई भी व्यक्ति सनातनी धर्म ग्रंथ की आलोचना कर देता है, सनातन धर्म को भला-बुरा कह देता है, धार्मिक स्थलों को अपवित्र कर देता है,गौ माता को भक्षण की वस्तु बना लेता है , साधु-संतों को लूट का शिकार बना लेता है, मंदिर के प्रसाद को अपवित्र करने का साहस कर लेता है। अतः समय के अनुसार सनातनियों को भी अपने मतभेदों को भूलकर एकजुट होने पर/ संगठित होने पर  विचार करना चाहिए।

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