वैश्विक राजनीति में जहां बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था आकार ले रही है, वहीं अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ताज़ा घोषणा—1 अगस्त 2025 से भारत पर 25% आयात शुल्क लगाने की चेतावनी—सिर्फ व्यापार का मुद्दा नहीं, बल्कि भारत-अमेरिका संबंधों की जटिलता और असमानता को भी उजागर करती है।
यह वही ट्रंप हैं जिनका भारत ने 2020 में ‘नमस्ते ट्रंप’ कार्यक्रम के ज़रिए ऐतिहासिक स्वागत किया था। उस समय ट्रंप और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मित्रता को रणनीतिक साझेदारी का प्रतीक माना गया था। लेकिन अब जब ट्रंप 2024 के अमेरिकी चुनाव के बाद रिपब्लिकन पार्टी में फिर से केंद्र में लौटे हैं, तो अमेरिका की आंतरिक आर्थिक चिंताओं और ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति के तहत भारत जैसे देशों पर शुल्क बढ़ाने की योजना सामने आई है।
25% टैरिफ का असर
भारत, जो अमेरिका के साथ लगभग 200 बिलियन डॉलर के द्विपक्षीय व्यापार में संलग्न है, वहां से हर साल लगभग 75 बिलियन डॉलर का निर्यात करता है—जिसमें आईटी सेवाएं, फार्मास्यूटिकल्स, ऑटो पार्ट्स, स्टील, वस्त्र, और हीरे शामिल हैं। भारतीय उद्योग परिसंघ (CII) का आकलन है कि ट्रंप की प्रस्तावित टैरिफ नीति से भारत को 18–20 बिलियन डॉलर का सीधा नुकसान हो सकता है, जिससे लगभग 30 लाख रोजगार—खासकर MSME सेक्टर में—प्रभावित हो सकते हैं।
स्टार्टअप्स और आईटी क्षेत्र में कार्यरत अमेरिका स्थित भारतीय डायस्पोरा पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ सकता है, क्योंकि आउटसोर्सिंग में कटौती की आशंका बढ़ रही है।
भेदभावपूर्ण रवैया?
ट्रंप का रुख चीन के प्रति हमेशा से आक्रामक रहा है, लेकिन बीजिंग की जवाबी रणनीति और क्षमता ने अमेरिका को संतुलित बनाए रखा। वहीं, यूरोपीय संघ के साथ ट्रंप अपेक्षाकृत नरम दिखे हैं, संभवतः नाटो की रणनीतिक मजबूरियों के कारण। भारत की स्थिति अलग है—वह ‘मित्र राष्ट्र’ की छवि और अमेरिका पर आंशिक व्यापारिक निर्भरता के बीच झूल रहा है।
WTO में चीन, ब्राज़ील और साउथ अफ्रीका पहले ही ट्रंप की टैरिफ नीति पर चिंता जता चुके हैं। भारत अब भी ‘आर्थिक कूटनीति बनाम राजनीतिक चुप्पी’ के दोराहे पर खड़ा है।
“नमस्ते ट्रंप” बनाम राष्ट्रहित
इस स्थिति ने उस धारणा को झटका दिया है कि राजनयिक स्वागत, विशाल जनसभाएं और सांस्कृतिक मेलजोल से रणनीतिक हित स्वतः सुरक्षित हो जाते हैं। ट्रंप की टैरिफ चेतावनी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि स्थायी मित्रता नहीं, बल्कि स्थायी हित ही कूटनीति की वास्तविकता हैं।
विकल्प और अवसर
भारत को अब बहुपक्षीय व्यापार रणनीतियों की ओर बढ़ना होगा। 2020 में RCEP से अलग होने के फैसले के बाद भारत ने स्वतंत्र व्यापार साझेदारियों की दिशा में कदम बढ़ाया है। 2024 में भारत-अफ्रीका व्यापार $98 बिलियन तक पहुंचा है—जो एक वैकल्पिक बाजार बन सकता है।
ब्राज़ील, इंडोनेशिया, नाइजीरिया जैसे ग्लोबल साउथ देशों के साथ क्षेत्रीय व्यापार समझौते भारत को अमेरिकी निर्भरता से राहत दिला सकते हैं। साथ ही WTO और BRICS जैसे मंचों पर अमेरिका की नीति का विरोध दर्ज कराते हुए भारत को अपने घरेलू उद्योग को सब्सिडी और कर राहत के ज़रिए मजबूत करना चाहिए।
राजनीतिक और रणनीतिक असर
2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार ने अमेरिका के साथ रिश्तों को “विश्वगुरु भारत” की नीति का मुख्य आधार बनाया था। अब ट्रंप की इस नीति से विपक्ष को सरकार की “बाहरी निर्भरता” वाली आर्थिक रणनीति पर सवाल उठाने का मौका मिल सकता है। कांग्रेस और TMC जैसे दल पहले ही इस मुद्दे को उठा चुके हैं।
लेकिन संकट को अवसर में बदलते हुए, भारत को “आत्मनिर्भर भारत” की नीति को ज़मीनी वास्तविकता बनाना होगा—घरेलू उत्पादन, क्षेत्रीय सहयोग और वैश्विक प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देकर।
डोनाल्ड ट्रंप की यह टैरिफ चेतावनी न केवल व्यापारिक दबाव है, बल्कि भारत के लिए एक रणनीतिक सबक भी है। अब समय आ गया है कि भारत ‘नमस्ते ट्रंप’ जैसी इवेंट डिप्लोमेसी से आगे बढ़कर यह समझे कि मित्रता की सच्चाई नारे नहीं, बल्कि नीतिगत संतुलन में होती है। भारत को अपने कूटनीतिक, व्यापारिक और रणनीतिक समीकरणों का पुनः मूल्यांकन करना होगा—वास्तविक हितों और दीर्घकालिक स्थिरता को केंद्र में रखकर।
(लेखक : आदित्य वर्मा, शोधार्थी, अंतरराष्ट्रीय संबंध, लखनऊ विश्वविद्यालय )