झरिया की जलती धरती: कोयले की आग में झुलसती ज़िंदगी और पर्यावरण

खूबसूरत राज्य झारखंड को प्रकृति ने बड़ी फुर्सत से गढ़ा है। यहां की हरियाली, पहाड़, झरने और नदियाँ किसी को भी आकर्षित कर सकती हैं। लेकिन यह राज्य केवल अपनी प्राकृतिक संपन्नता के लिए ही नहीं, देश की ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने वाले कोयला भंडारों के लिए भी प्रसिद्ध है। झारखंड में देश का लगभग 19 प्रतिशत कोयला है, और जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार यहां करीब 86 हजार मिलियन टन कोयले का भंडार मौजूद है, जो अगले 70 वर्षों तक देश की ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है। सुनने में यह सब सुखद लगता है- लेकिन इस तस्वीर के पीछे एक धुएँ से ढँकी हुई, झुलसी और दरकी हुई सच्चाई है।

झरिया, जो धनबाद जिले का हिस्सा है, बीते 109 वर्षों से जल रहा है। 1916 में पहली बार भूमिगत आग की सूचना मिली थी, और तब से लेकर आज तक झरिया की धरती अंदर ही अंदर धधकती आ रही है। झरिया कोलफील्ड की शुरुआत निजी स्वामित्व वाली खदानों से हुई थी, जहाँ मुनाफा सर्वोपरि था और सुरक्षा, संरक्षण, या पर्यावरण की कोई परवाह नहीं की गई। अवैज्ञानिक और लापरवाह खनन ने आग को जन्म दिया और झरिया को एक पर्यावरणीय नरक में बदल दिया। आज झरिया के कई इलाके ऐसे हैं, जहाँ धुएं के गुबार और जहरीली हवा आम बात है। आग के कारण भूमि का क्षरण जारी है, ज़मीन धँसती जा रही है और घरों में दरारें पड़ती जा रही हैं। कभी-कभी अचानक भूधंसान से गोफ बनते हैं, जिनमें इंसान समा जाते हैं। यह सब इतना आम हो चला है कि लोग मौत को जीवन का हिस्सा मानकर जीने को विवश हैं।

पूरे देश को ऊर्जा देने वाला झरिया, खुद अंधेरे और असुरक्षा में डूबा हुआ है। यहाँ के लोग रोज़ाना ज़मीन के नीचे की आग और ऊपर की विषैली हवा के बीच जीते हैं। लेकिन इसके बावजूद, कई लोग यह क्षेत्र छोड़कर जाना नहीं चाहते। एक वजह है- रोज़गार। झरिया न केवल एक खनन क्षेत्र है, बल्कि एक व्यावसायिक केंद्र भी है। यहाँ छोटे-बड़े कारोबारी, खोमचे वाले, मजदूर और दुकानदार अपनी आजीविका चलाते हैं। बेलगड़िया टाउनशिप में जिन लोगों को पुनर्वास के तहत घर मिले, वे कुछ समय बाद फिर से झरिया लौट आए, क्योंकि वहाँ रहने के लिए घर तो था, लेकिन रोज़गार और मूलभूत सुविधाएँ नहीं थीं।

झरिया में भूमिगत आग से सबसे बड़ा असर पर्यावरण और मानवीय जीवन पर पड़ा है। आग से निकलती जहरीली गैसें जैसे कार्बन मोनोऑक्साइड, मीथेन और कार्बन डाइऑक्साइड, न केवल हवा को जहरीला बना रही हैं, बल्कि सांस से जुड़ी गंभीर बीमारियाँ जैसे दमा, ब्रोंकाइटिस, फेफड़ों का कैंसर और त्वचा रोग यहाँ आम हो गए हैं। क्षेत्र में तापमान असमान्य रूप से बढ़ा है, मिट्टी बंजर हो चुकी है और भूमिगत जल का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। यह सब मिलकर झरिया को एक जीवित पर्यावरणीय आपदा क्षेत्र बना चुका है।

लेकिन यह आग केवल कोयले और पर्यावरण तक सीमित नहीं, यह लोगों के जीवन में भी धधकती है। 24 मई 2017 को झरिया के इंदिरा चौक (फुलारीबाग) क्षेत्र में एक भयावह हादसा हुआ, जब एक गैराज मिस्त्री बबलू गद्दी और उनका 14 वर्षीय पुत्र रहीम अचानक जमीन धँसने से उसमें समा गए। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, जमीन धंसते ही ज़ोरदार गैस रिसाव हुआ और अगल-बगल की ज़मीन भी अत्यंत गर्म हो गई। यह केवल एक दुर्घटना नहीं, बल्कि उस भयंकर स्थिति का संकेत है जिसमें झरिया के लोग हर दिन जी रहे हैं। वर्ष 2018 से आरएसपी कॉलेज, झरिया को भूमिगत आग के खतरे के कारण अस्थायी रूप से झरिया से स्थानांतरित कर बेलगड़िया टाउनशिप में संचालित किया जा रहा है। यह एक शिक्षण संस्थान के विस्थापन की दुर्लभ और चिंताजनक स्थिति है, जो बताता है कि झरिया की आग अब केवल घरों को ही नहीं, शिक्षा व्यवस्था को भी जला रही है। और इतना ही नहीं, 2020 में झरिया क्षेत्र के स्कूलों का बंद होना इन त्रासदियों का जीवंत प्रमाण है।

झरिया मास्टर प्लान, जिसे एशिया की सबसे बड़ी पुनर्वास योजना कहा जाता है, 2009 में प्रारंभ हुआ था और इसका लक्ष्य था कि 2021 तक झरिया के अग्निप्रभावित क्षेत्रों के सभी लोगों को सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरित कर दिया जाए। लेकिन आज भी पुनर्वास का कार्य अधूरा है। झरिया पुनर्वास एवं विकास प्राधिकरण के तहत अब तक केवल आंशिक सफलता मिली है। लगभग 32 हजार रैयत और एक लाख से अधिक गैर-रैयत, जो किसी न किसी रूप में झरिया की ज़मीन और अर्थव्यवस्था से जुड़े हैं, पुनर्वास के प्रति असमंजस में हैं। बेलगड़िया, जहाँ कुछ लोगों को बसाया गया, वहाँ न तो पर्याप्त रोज़गार है, न चिकित्सा सुविधा, न ही सामाजिक संरचना।

2021 में किए गए एक सर्वेक्षण में दावा किया गया कि भूमिगत आग का दायरा 17.32 वर्ग किलोमीटर से घटकर 1.8 वर्ग किलोमीटर रह गया है। लेकिन इसके बावजूद भूधंसान की घटनाएँ तेज़ी से बढ़ी हैं, और जान-माल की हानि जारी है। पुनर्वास प्रक्रिया में स्थानीय लोगों की भागीदारी, रोजगार के वैकल्पिक स्रोत और स्थायी ढांचे का निर्माण न होना इस योजना की सबसे बड़ी कमजोरी बन गई है। केंद्र सरकार ने हाल ही में झरिया पुनर्वास योजना के लिए ₹5940 करोड़ की राशि स्वीकृत की है। इसका उद्देश्य है कि डेंजर जोन में रह रहे लोगों को सुरक्षित आवास, रोज़गार के साधन और आवश्यक सुविधाएं दी जाएं। लेकिन झरिया के लोगों का भरोसा अब योजनाओं पर नहीं, उनके वास्तविक क्रियान्वयन पर टिका है। झरिया की यह अग्निकथा केवल एक क्षेत्रीय आपदा नहीं है, यह एक राष्ट्रीय चिंता का विषय है।

आज आवश्यकता है कि केंद्र और राज्य सरकार, कोयला कंपनियाँ, वैज्ञानिक संस्थान और नीति-निर्माता मिलकर एक समन्वित एवं दीर्घकालिक रणनीति बनाएं, ताकि झरिया को अग्नि-मुक्त और हरियाली-युक्त बनाया जा सके। इसके लिए केवल कागजी योजनाओं से काम नहीं चलेगा, बल्कि व्यवहारिक क्रियान्वयन और नवीनतम तकनीकों का सहारा लेना अनिवार्य है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकसित आधुनिक तकनीकों नाइट्रोजन फ्लशिंग, बैकफिलिंग और गैस सीलिंग आदि जैसी विधियों का उपयोग किया जाए। ताकि झरिया की जलती ज़मीन को ठंडा करने में मददगार साबित हो सकती हैं।

पुनर्वास योजनाएँ लोगों की भागीदारी से बनाई जाएँ, ताकि वे केवल सरकारी घोषणा नहीं, ज़मीन पर सच बन सकें। इसके साथ ही क्षेत्र में मोबाइल चिकित्सा इकाइयाँ, शिक्षा केंद्र, स्वरोजगार प्रशिक्षण और हरित पट्टियों का निर्माण किया जाना चाहिए, ताकि झरिया न केवल बचे, बल्कि फिर से साँस ले सके। झरिया की आग अब चेतावनी बन चुकी है- यह हमें याद दिलाती है कि जब विकास का आधार विनाश बनता है, तो अंततः वह मानवता को ही लील लेता है। यदि बबलू गद्दी और रहीम जैसे मासूम लोगों की पीड़ा से भी हम नहीं जागे, अगर आरएसपी कॉलेज जैसे संस्थानों को भी हम विस्थापित होते देख चुप रहे, तो झरिया की अगली दरार में केवल ज़मीन ही नहीं, हमारी संवेदना भी समा जाएगी। अब समय आ गया है कि इस आग को केवल बुझाया नहीं जाए, बल्कि झरिया को एक नई शुरुआत दी जाए-सुरक्षित, स्वस्थ और हरित भविष्य की ओर।

 

( मिथलेश दास, शोध छात्र, हिंदी विभाग,राधा गोविन्द विश्वविद्यालय, रामगढ़, झारखण्ड)

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