आस्था: अध्यात्म का मूल स्तंभ
आस्था… यह केवल एक शब्द मात्र नहीं है, बल्कि यह वह अखंड बीज है, जिस पर हमारी पूरी सनातन संस्कृति, हमारा अध्यात्म, हमारी श्रद्धा और हमारी भक्ति का सम्पूर्ण भवन टिका हुआ है। यह हमारी अमर विरासत का मूल सूत्र है। सोचिए! जिन वेद, पुराणों, उपनिषदों, गीता, रामायण जैसे ज्ञान-गंगा का प्रवाह सदियों से हो रहा है, वे सब के सब हमारी ऋषियों की उस अगाध आस्था और श्रद्धा का ही तेजस्वी परिणाम हैं। और हां, आज भी ये ग्रंथ हमारी आस्था के आधार स्तम्भ बने हुए हैं। यह एक अकाट्य सत्य है कि आज यदि समस्त संसार में कोई संस्कृति इतनी समृद्ध, इतनी सशक्त, इतनी जीवंत है और यदि दुनिया को शांति तथा आत्म-ज्ञान का संदेश देने वाली कोई शक्ति विद्यमान है, तो वह केवल और केवल भारत के पास है। और, इस अद्वितीय शक्ति का एकमात्र आधार हमारी अटूट आस्था ही है।
हमारी आध्यात्मिक चेतना, हमारी कठोर साधना—यह सब ईश्वरीय आस्था के ही चमत्कारिक परिणाम हैं। हमारी इसी आस्था के कारण भारत ने युगों-युगों तक विश्वगुरु का पद सुशोभित किया था और आज जब हम एक बार फिर से अपनी जड़ों की ओर लौट रहे हैं, तो हमें स्पष्ट दिखाई देता है कि हम पुन: उसी राजमार्ग पर तेजी से अग्रसर हैं—जिसका नाम है आस्था का पथ।
लेकिन, आज जब आस्था अपने चरम उत्कर्ष पर होनी चाहिए, तब उसी आस्था के मस्तक पर कालिख पोतने का घिनौना खेल चल रहा है! इन दिनों नवरात्र का पवित्र समय है—देवी दुर्गा, जगतजननी माँ जगदंबा की आराधना का सर्वश्रेष्ठ अवसर। एक तरफ, प्रत्येक मंदिर और घर में वैदिक मंत्रों की पवित्र गूंज है, शंखध्वनि और घंटियों का निनाद है और मां जगदंबा के पावन भजन गुंजरित हो रहे हैं; वहीं, दूसरी ओर, कुछ ऐसे लोग भी हैं जो ओछी लोकप्रियता बटोरने, शहर में अपनी दबंग छवि स्थापित करने और अपने खोखले संपन्नता का स्टेटस दिखाने के चक्कर में, हमारी अविचल आस्था को कलंकित करने में लगे हुए हैं। यह शर्मनाक एवं अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हाल ही में आस्था के नाम पर झारखंड के बोकारो में फूहड़ता परोसने का कुत्सित और घिनौना खेल खेला गया।
दुगार्पूजा में हम एक ओर देवी स्वरूप में अपनी बेटियों की पूजा करते हैं, अपनी माता-बहनों का सम्मान करते हैं और देवी स्वरूप उनके प्रति अपनी निष्ठा और श्रद्धा अर्पित करते हैं और ठीक उसी समय, दूसरी ओर, नारी की छवि को ‘कला’ की आड़ में फूहड़ता और कामवासना की प्रतिमूर्ति के रूप में प्रस्तुत करने का कुत्सित चलन सा चल पड़ा है। यह दोहरा मापदंड हमारी सामाजिक चेतना पर सीधा हमला है!
मां दुर्गा की भक्ति के लिए विश्वस्तर पर प्रसिद्ध, गुजरात की माटी से निकले गरबा और डांडिया नृत्य की पवित्रता अपने-आप में सर्वविदित है। ये नृत्य भक्ति और समर्पण का शुद्धतम रूप हैं। परंतु, गरबा और डांडिया के नाम पर जिस प्रकार का आयोजन किया गया, उसे हमारी आस्था को कलंक के कब्र में गाड़ने का कुत्सित प्रयास ही कहेंगे। विडंबना देखिए, उसी कार्यक्रम में शामिल हजारों ऐसे लोगों की भीड़ भी थी, जो इसे मनोरंजन मात्र का आयोजन मान अपनी आस्था को कलंकित होते देख भी आनंदित हो रहे थे! यह किस प्रकार की आत्मिक मूर्च्छा है? भोजपुरी फिल्मों में अश्लीलता परोसने के लिए नामचीन एक अभिनेत्री को मंच पर बुलवाकर, अभद्र कपड़ों में ठुमके लगवाना—वह भी उन गीतों पर जिसकी सभ्य समाज में कोई जगह नहीं है—यह अपने-आप में अत्यंत शर्मनाक है। दूसरे शब्दों में कहें, तो यह हमारी सामूहिक नैतिकता के पतन का सजीव प्रमाण है।
सबसे बड़ा संकट यह है कि आस्था को मनोरंजन का रूप देने की होड़-सी चल पड़ी है। श्रद्धा और भक्ति मन से होती है, हृदय से होती है, जिसमें हम अपने ईष्ट, अपने आराध्य के प्रति अगाध विश्वास के साथ पूजा-पाठ करते हैं। लेकिन, सोशल मीडिया के इस दौर में फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम पर रील बनाने और लाइक्स तथा कमेंट्स बटोरने की होड़ ने भक्ति को केवल नाच-गाना तक सीमित कर दिया है, जिसमें भक्ति का मूल तत्व ही लुप्त होता चला जा रहा है। आश्चर्य देखिए कि लोग मंदिरों की आरती में नहीं जुटते, लेकिन नाच-गान में पैसे खर्च कर जरूर शामिल होते हैं। ये भला कैसी भक्ति है? यह हमारे समाज की प्राथमिकताओं के भटकाव को दिखाता है। सरस्वती पूजा में हर साल आस्था का यह डीजेकरण दिखता ही है। विद्यार्थी विद्या की अर्थी निकाल भजनों की बजाय भद्दे गीत बजाते हैं और विसर्जन में सारी हदें पार कर देते हैं। हम अपने ही धर्म के मूल्यों को चूर-चूर कर रहे हैं!
वास्तव में यह हमारी संस्कृति, हमारी सनातन परंपरा और उस धर्म के लिए अत्यंत शर्मनाक है, जो समस्त विश्व में भारत को विश्व गुरु का दर्जा दिलाने में सक्षम है। हिंदू सनातन धर्म की महत्ता किसी से नहीं छिपी, लेकिन इस प्रकार के आयोजनों से हमारी आस्था को कुठाराघात पहुंचता है। यह आत्मघाती है। सबसे पहली आवश्यकता इस बात की है कि ऐसे आयोजनों के खिलाफ सरकार और प्रशासन के स्तर पर सख्ती बरती जाए। कठोर दंड का प्रावधान हो। आयोजकों को यह स्पष्ट संदेश जाना चाहिए कि आस्था के नाम पर अश्लीलता का व्यापार अब और नहीं चलेगा। उससे भी कहीं ज्यादा जरूरी है समाज के लोगों को इसके प्रति जागरूक होने की आवश्यकता। यह लड़ाई सरकार की नहीं, यह लड़ाई हमारी आत्मा की है।
जब सामाजिक स्तर पर आस्था के नाम पर अश्लीलता परोसने वाले कार्यक्रमों का पूर्ण बहिष्कार होगा, जब लोग खुद इन कार्यक्रमों में जाना बंद कर देंगे, तब चंद रुपए बटोरने और समाज में अपनी झूठी छवि बनाने वाले आयोजकों की हिम्मत ही नहीं होगी कि वे इस प्रकार आस्था को धूल-धूसरित करने का कुत्सित प्रयास करेंगे। इसके साथ ही, कला की गरिमा को कलंकित करने वाले तथाकथित कलाकारों को भी इससे सबक मिलेगा। उन्हें समझना होगा कि उनकी कला का मूल्य, उनकी अश्लील प्रस्तुति से कहीं ऊपर है। आस्था दिखावा या ढोंग मात्र न रह जाय, इसके लिए जागरूक होना होगा। क्योंकि, आस्था बिकने के लिए नहीं, बल्कि पूजने के लिए है।
(दीपक झा, स्वतंत्र पत्रकार, बोकारो, झारखंड; ये लेखक के निजी विचार हैं)

