लेखक:डॉ स्नेहलता श्रीवास्तव
आज हम जिस युग में जी रहे हैं, वह तकनीकी उन्नति और भौतिक समृद्धि का युग है, लेकिन साथ ही यह युग मूल्य-स्खलन, मानसिक अशांति और सामाजिक अपराधों की बढ़ती प्रवृत्ति के लिए भी जाना जाने लगा है। बच्चों से लेकर युवाओं तक, घरों से लेकर गलियों तक—हिंसा, अवसाद, क्रोध, आक्रोश और मानसिक विकृतियाँ अपने पाँव पसार रही हैं।
ऐसे में एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है—क्या समाज केवल कानून, पुलिस और दंड के माध्यम से सुधर सकता है? या फिर, हमें भीतर से भी कुछ बदलने की आवश्यकता है?
असल परिवर्तन तो अंतस में बदलाव से ही आता है। और इस आंतरिक परिवर्तन का एक सशक्त साधन है योग, जो केवल शारीरिक व्यायाम नहीं, बल्कि एक समग्र जीवन-दृष्टि है।
अपराध का मनोवैज्ञानिक आधार
मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि अपराध का जन्म बाहरी कारणों से नहीं, बल्कि भीतर के असंतुलन से होता है। जब व्यक्ति का मन विवेकहीन इच्छाओं, वासनाओं, लालच और क्रोध से भर जाता है, तब वह न्याय, मर्यादा और करुणा जैसे मानवीय गुणों से दूर हो जाता है।
अपराध की जड़ें हैं—आत्मविस्मृति, क्षणिक लाभ की प्रवृत्ति, अनियंत्रित भावनाएँ और मूल्यहीनता। इनका समाधान केवल दंड नहीं, बल्कि चेतना के जागरण से संभव है—और यही योग का उद्देश्य है।
योग: आत्म-शोधन की प्रक्रिया
योग केवल आसनों तक सीमित नहीं है, वह एक आत्म-शोधन की प्रक्रिया है। विशेष रूप से पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग न केवल शरीर को, बल्कि मन और चित्त को भी साधता है। इसके माध्यम से व्यक्ति अपने भीतर छिपे विकारों को पहचानता है और उन्हें आत्मबल से नियंत्रित करता है।
जब कोई व्यक्ति स्वयं को जानने लगता है, तब वह दूसरों को कष्ट नहीं पहुँचा सकता।
तिहाड़ मॉडल: योग का सामाजिक प्रभाव
अपराध-निवारण में योग की प्रभावशीलता का एक उदाहरण तिहाड़ जेल है। वहाँ की पूर्व महानिदेशक किरण बेदी ने योग और ध्यान के कार्यक्रम प्रारंभ किए, जिनके सकारात्मक परिणाम सामने आए। इन कार्यक्रमों से कैदियों में आत्मसंयम बढ़ा, आक्रोश और अवसाद में कमी आई, और पश्चाताप तथा आत्मसुधार की भावना विकसित हुई।
अंतरराष्ट्रीय अनुभव
अमेरिका, ब्राज़ील और यूरोप के कई देशों में भी योग-आधारित पुनर्वास कार्यक्रम संचालित हो रहे हैं, जहाँ कैदियों को आत्मनिरीक्षण की दिशा में प्रेरित किया जा रहा है।
आज की आवश्यकता: योग को जीवन का हिस्सा बनाएं
आज आवश्यकता है कि योग को विद्यालयों, पुलिस प्रशिक्षण केंद्रों, सुधारगृहों, किशोर न्याय संस्थानों, तथा सामाजिक पुनर्वास केंद्रों का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाए।
हमें अपने बच्चों को भी योग केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए नहीं, बल्कि मूल्यबोध, सहानुभूति और आत्मसंयम के लिए सिखाना चाहिए।
योग—भीतर की सुरक्षा की दीवार
कानून केवल भय उत्पन्न करता है, लेकिन संस्कार, अनुशासन की नींव डालते हैं। योग शरीर नहीं, मन को बांधता है—और जब मन अनुशासित होता है, तो समाज स्वतः सुरक्षित हो जाता है।
आज जब हम बाहरी सुरक्षा के लिए दीवारें खड़ी कर रहे हैं, तब हमें भीतर भी दीवारें खड़ी करनी होंगी—संयम, विवेक और आत्मबोध की। और यह कार्य योग के माध्यम से ही संभव है।
योग केवल अपराध से रक्षा नहीं करता—वह मनुष्य को ‘मनुष्य’ बनाए रखता है।