– डी. के. वत्स
बचपन अपने-आप में मासूमियत का पर्याय है। छोटे-छोटे मासूम बच्चे हंसते-खेलते स्कूल के लिए जाते तो हैं, लेकिन जब वो लौटकर नहीं आते या फिर लहूलुहान हो लौटते हैं तो उस बच्चे की मां और अन्य परिजनों की ममता भी लहूलुहान हो जाती है। बीते बुधवार को रामगढ़ के गोला में जिस प्रकार की हृदयविदारक घटना घटी, उसने सभी को झकझोर कर रख दिया। स्कूली बच्चों से भरे ऑटो के ऊपर आलू लदा ट्रक पलटने से ऑटो के चालक सहित तीन बच्चों की मौत हो घटनास्थल पर ही हो गई, जबकि लगभग एक दर्जन बच्चे घायल हो गए। मृृृत बच्चों की उम्र 5 से 11 साल की थी। घायल सभी बच्चे भी छोटी उम्र के थे। जब मृत बच्चों के परिजन घटनास्थल पर पहुंचे तो राष्ट्रीय उच्चपथ 320 उनकी कारुणिक चीत्कार से दहल उठी। स्वाभाविक भी है। इस तरह की घटनाएं साबित करती हैं कि हमारे-आपके बच्चे जान हथेली पर लेकर या यूं कहें कि मौत का जोखिम भरा सफर तय कर स्कूल जाते-आते हैं।
सुबह-सवेरे स्कूल यूनिफॉर्म में सजे मां-बाप के लाडले स्कूल के लिए जब घर से निकलते हैं, तो वे अपने बच्चों की सुंदरता पर मोहित हो जाते हैं। उन्हें देखकर सपने संजोने लगते हैं कि पढ़-लिखकर उनके बच्चे अच्छे जॉब में जाएंगे, अच्छा और सफल इंसान बनेंगे तथा बुढ़ापे में उनका सहारा बनेंगे। लेकिन, यह नहीं सोचा कि उनका बच्चा स्कूल जाने के लिए कितना खतरनाक सफर तय कर रहा है। जिस ऑटो में बच्चे को भेजा जाता है, उस ऑटो में भेड़-बकरियों की तरह बच्चों को लादकर स्कूल पहुंचाया जाता है। ऑटो चालक दो पैसे ज्यादा कमाने के चक्कर में परिवहन विभाग द्वारा निर्धारित सीट क्षमता से ज्यादा बच्चों को बैठा लेते हैं और रफ्तार इतनी बदहवास होती है कि हर पल बच्चों की जान जोखिम में ही होती है। आवश्यक सावधानियां भी नहीं बरती जा रही है। बावजूद इसके अभिभावक भी इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। वे भी बच्चों की जान जोखिम में डालकर उन्हें लापरवाह ऑटो चालकों के साथ स्कूल भेज रहे हैं। ऑटोचालकों को यह समझ तो है ही नहीं कि वे नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं, उन्हें इस बात की भी परवाह नहीं कि जिन बच्चों को वे खतरनाक तरीके से ले जा रहे हैं वे किसी की आंखों का तारा है।
अभी पिछले ही महीने बोकारो के सिटी पार्क के समीप स्कूली बच्चों को लेकर जा रहा एक तेज रफ्तार ऑटो दुर्घटनाग्रस्त हो गया था, जिसमें तीन बच्चे घायल हो गए थे और एक छात्रा बेहद गंभीर रूप से घायल हो गई थी। इसके पूर्व, बोकारो थर्मल-कंजकिरो मुख्य सड़क पर ऑटो पलटने से उसमें सवार 16 स्कूली बच्चे घायल हो गए थे। आधा दर्जन बच्चों को गंभीर चोटें आई थीं। सभी बच्चे बोकारो थर्मल स्थित संत पॉल मॉडर्न, इंडियन स्कूल ऑफ लर्निंग तथा कार्मेल स्कूल के थे। सभी स्कूल से छुट्टी के बाद प्रत्येक दिन की ही तरह अपने ऑटो से कंजकिरो, कोरियाबेड़ा, गोवारडीह घर जा रहे थे। कुछ वर्ष पूर्व चास के वंशीडीह में एक स्कूली बच्चे की टेम्पो पलटने से मौत हो गई थी। ऐसी घटनाएं झारखंड में आए दिन अलग-अलग जगहों से लगातार सामने आ रही हैं, फिर भी इस खतरनाक सफर पर ब्रेक नहीं लग सकी है।
बुधवार को रामगढ़ की घटना गुडविल मिशन स्कूल, रामगढ़ के बच्चों के साथ घटी। आश्चर्य की बात तो यह है कि गुडविल मिशन ने केवल धन उगाही को ही शायद अपना मिशन बना रखा है। बच्चों के गुडविल से उन्हें शायद कोई लेना-देना नहीं। झारखंड सरकार ने 13 जनवरी 2025 तक ठंड के मद्देनजर सातवीं कक्षा तक के बच्चों की क्लास पर रोक लगा रखी है। बावजूद इसके उक्त स्कूल को खोलकर रखा गया। इस लापरवाही के खिलाफ विद्यालय को सील करते हुए संचालक के खिलाफ मुकदमा तो दर्ज कर लिया गया है। परंतु, इस तरह की लापरवाही के पीछे कहीं न कहीं अभिभावक भी काफी हद तक ज़िम्मेदार हैं। जब स्कूल बंद करने का आदेश सरकार की ओर से था तो मासूमों को स्कूल भेजने की जरूरत ही क्या थी। चार-पांच दिन बच्चे स्कूल अगर न जाते तो आईएएस-आईपीएस अफसर बनने से न चूक जाते। अभी तो पढ़ाई में उनके नन्हे कदम आगे बढ़े ही हैं, जिनकी हिफाज़त भी जरूरी है।
परिवहन विभाग द्वारा एक ऑटो में आठ सीट निर्धारित है, लेकिन इनमें 10-15 बच्चे ठूंस दिए जाते हैं। कुछ न कुछ बहाना दिखाकर अभिभावक भी मजबूरी गिना देते हैं, वहीं स्कूल प्रबंधन इस मामले में अपना पल्ला झाड़ लेता है। अधिकतर स्कूल प्रबंधन का कहना है कि ऑटो से आने वाले बच्चे स्कूल प्रबंधन की जिम्मेवारी नहीं हैं। ऑटो स्कूल के नहीं, निजी होते हैं। बड़े स्कूलों की ओर से बसें भी चलती हैं, लेकिन कुछ पैसे बचाने के चक्कर में अभिभावक ऑटो में बच्चों को जोखिम भरा सफर तय करने के लिए भेज देते हैं।
सुरक्षित यात्री परिवहन के लिए सरकार ने नियम तो बहुत बनाए हैं, लेकिन इनका पालन तभी कराया जाता है जब कोई मंत्री या बड़ा अफसर कहे। अन्यथा, सामान्य दिनों में मौत के सफर पर जिम्मेदार परिवहन और पुलिस महकमा आंखें ही बंद रखता है। इसी के परिणामस्वरूप स्कूली बच्चों को ढोने वाले ऑटो पर सरकार और प्रशासन राज्य में शायद मेहरबान है। जबकि, इनकी लापरवाही मासूमों के साथ बड़े हादसों का कारण बनी हुई है। स्कूली बच्चों का परिवहन करने वाले वाहनों के लिए हाईकोर्ट द्वारा भी गाइडलाइन तैयार कराई गई है, लेकिन इस गाइडलाइन का परिवहन विभाग और पुलिस प्रशासन पालन नहीं करा है। परिणामस्वरूप धड़ल्ले से ऑटो चालक लापरवाहीपूर्ण तरीके से बच्चों को घर से स्कूल और स्कूल से घर छोड़ रहे हैं और हादसे पर हादसे हो रहे हैं, पर अफसरों को इसकी शायद तनिक भी चिंता तक नहीं है।
हालांकि, खानापूर्ति के लिए समय-समय पर ओवरलोडिंग की रोकथाम के लिए अभियान तो चलाया जाता है, लेकिन इसका कोई खास असर टेंपो चालकों पर नहीं पड़ता है। एक-दो दिनों के बाद टेंपो चालक फिर ओवरलोडिंग करने लगते हैं, जिसे रोकने वाला कोई नहीं होता है। किसी-किसी टेंपो में तो सेफगार्ड के लिये जाली लगी होती है, जबकि ज्यादातर एक तरफ से खुले ही होते हैं और बच्चे बाहर तक लटकी हालत में ठीक उसी खतरनाक तरीके से सफर करते हैं जिस प्रकार आटो के बाहर उनके बैग झूलते दिख जाते हैं। स्कूली ऑटो के दुर्घटनाग्रस्त होने जैसी घटनाओं के बाद तात्कालिक तौर पर प्रशासन सक्रिय होता है, फिर बाद में धीरे-धीरे स्थिति वैसी ही हो जाती है और फिर कोई बड़ा हादसा एक करारा झटका दे जाता है। ओवरलोड ऑटो चालकों पर समय-समय पर कार्रवाई की जाती है। नियम-विरुद्ध वाहन चलाने वालों पर जुर्माना भी किया जाता है, लेकिन बच्चों को सुरक्षित तरीके से ले जाने-आने पर भी ठोस कार्रवाई की दिशा में न तो सरकार और न ही स्थानीय प्रशासन की तंद्रा नहीं टूट सकी है।
खबरों के अनुसार, स्कूली बच्चों की सुरक्षा को देखते हुए बिहार सरकार ने अहम फैसला लिया है। राज्य सरकार ने स्कूलों में बच्चों को ले जाने वाले ऑटो और टोटो जैसे तिपहिया वाहनों के खिलाफ नया आदेश जारी किया है।अब से बिहार में स्कूली बच्चे इन वाहनों से स्कूल नहीं जा सकेंगे। यह आदेश अप्रैल 2025 महीने से पूरे राज्य में लागू होगा। वहीं, यूपी के भी बरेली सहित कई जिलों में ऑटो-टोटो से स्कूली बच्चों को ले जाने पर सख्त प्रतिबंध है। वहां तो हर स्कूल में विद्यालय परिवहन सुरक्षा समिति भी गठित की गई है, जो बच्चों के आने-जाने की मॉनिटरिंग करती है। जरूरत इस बात की है कि पड़ोसी राज्यों की पहलों तथा रामगढ़ की घटना से सीख लेकर झारखंड में भी अब इस दिशा में सख्त कदम उठाए जाएं। जब तक सरकारी स्तर से ठोस कार्रवाई नहीं होती और अभिभावक भी अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर जागरूक नहीं होंगे, तब तक शायद न जाने मौत की सवारी तले बचपन यूं ही दफन होता रहेगा।