जेएनएस। रिसाईकिलबी प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली ने ई-वेस्ट रिसाइक्लिंग प्लांट स्थापित करने हेतु राष्ट्रीय धातुकर्म प्रयोगशाला (CSIR-NML) से टेक्नोलोजी लेने हेतु करार किया। इस करार (MoU) मे लिथियम आयन बैटरी (LIBs) से Li, Co, Mn, Ni, Cu, Al और ग्रेफाइट का पुनर्चक्रण करने के लिए तकनीकी का हस्तांतरण होना है।
ज्ञात हो की एनएमएल पहले भी राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर ई-कचड़ा निष्पादन हेतु तकनीकी स्थानांतरण कर चुका है। रिसाईकिलबी प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली ई-कचड़ा प्रोसेसिंग कर कीमती एवं बहुमूल्य धातुओं लिथियम, तांबा, कोबाल्ट,कॉपर, मैंगनीज, निकिल इत्यादि का निष्कर्षण करेगा। जो पूर्ण रूप से ई-कचड़ा के लिए बहुमूल्य तोहफा हैं, कारण रिसाइक्लिंग ज़ीरो वेस्ट कोंसेप्ट पर कार्य करेगा।
तकनीकी पर्यावरण अनुकूल हैं एवं इसके सही निष्पादन से पर्यावरण स्वच्छ होगा, बेरोजगार युवकों को नौकरी मिलेगी एवं असंगठित इकाई संगठित होकर कचड़ा उठाव एवं निष्पादन इस प्लान्ट के द्वारा कर सकेंगे। मुनिसिपल इकाई भी इस कंपनी से संपर्क कर कचड़ा निष्पादन कर पाएंगे।
रिसाईकिलबी कंपनी ने खराब हो चुकी लिथियम आयन बैट्री की रिसाइक्लिंग को लेकर टेक्नोलोजी ट्रान्सफर करने का समझौता किया है। इस मौके पर सीएसआईआर-एनएमएल, जमशेदपुर के निदेशक डॉ. इंद्रनील चट्टोराज, परियोजना प्रमुख डॉ. मनीष कुमार झा, प्रमुख धातु निष्कर्षण विभाग डॉ. संजय कुमार एवं टीम शोधार्थी डॉ. पंकज कुमार चौबे, डॉ. रेखा पांडा, सुश्री रुकसाना परवीन एवं श्री ओम शंकर दिनकर उपस्थित थे। इनके अलावा व्यापार प्रमूख डॉ. एसके पाल एवं डॉ. बीणा कुमारी ने एमओयू करवाने में अपना सहयोग किया। KRIT की तरफ से डॉ. पारस नाथ मिश्रा ने एमओयू सम्बन्धित कार्यों में एवं ई-वेस्ट रिसाइक्लिंग के क्षेत्र में भारत मे भावी संभावनाओं की ओर प्रेस एवं मीडिया को इंगित किया ।
रिसाईकिलबी कंपनी, दिल्ली के निदेशक मोहित गर्ग ने अपने व्यापार में प्रगति करते हुए वर्तमान परिपेक्ष में जहाँ सीमित प्राकृतिक अयस्क है, ई-वेस्ट रिसाइक्लिंग की महत्व को देखते हुए सीएसआईआर- एनएमएल, जमशेदपुर के साथ तकनिकी हस्तांतरण का करार किया है।
इस तकनीकी करार के तहत खराब हो चुकी लिथियम आयन बैट्री की रिसाइक्लिंग कर लिथियम, तांबा, कोबाल्ट, मैंगनीज, निकिल इत्यादि के निष्कर्षण पर काम करेंगे ।
गंभीर स्थिति
ई-कचरे से छुटकारा पाने के लिए एक समयबद्ध और युद्धस्तर की कार्य योजना की जरूरत है। सरकारी, गैर-सरकारी एजेंसियों, उद्योगों, निर्माताओं, उपभोक्ताओं, स्वयंसेवी समूहों और सरकारों के स्तर पर जागरूकता पैदा करने और उसे बनाए रखने की जरूरत है। ई-कचरे के संग्रहण लक्ष्य और वास्तविक संग्रहण के अंतर को कम किया जाना चाहिए। डिसमैंटल क्षमता को बढ़ाने की जरूरत है। पर्यावरणीय लिहाज से जुर्माने या मुआवजा जैसी व्यवस्थाएं रखनी चाहिए, और ई-कचरे को लेकर सतत निगरानी और निरीक्षण की जरूरत भी है।
यह भी जरूरी है कि गैरआधिकारिक और गैरकानूनी स्तर पर चल रही डिसमेन्टिल और रिसाइक्लिंग कारोबार को बंद किया जाना चाहिए, बेहतर होगा कि उन्हें सही दिशा में प्रशिक्षित और जागरूक कर वैध बनाया जाए, लेकिन ये भी ध्यान रखे जाने की जरूरत है कि ऐसे ठिकाने आबादी और हरित क्षेत्र से दूर बनाए जाएं ताकि पर्यावरण पर कम से कम प्रभाव पड़े। एनजीटी का कहना है कि सीपीसीबी को कम से कम छह महीने के एक निश्चित अंतराल पर ई-कचरे के निस्तारण से जुड़ा स्टेटस अपडेट करते रहना चाहिए।
जाहिर है यह काम सभी राज्यों के प्रदूषण बोर्डों के साथ समन्वय से ही संभव हो पाएगा। और राज्यों में भी सभी उत्तरदायी एजेंसियों को इस बारे में न सिर्फ मुस्तैद रहना होगा बल्कि उन ठिकानों को चिन्हित भी करते रहना होगा जो इस अवैध निस्तारण के चलते पर्यावरणीय लिहाज से नाजुक हो रहे हैं। फिर चाहे वो वहां का भूजल हो या वहां की हवा या वहां के लोगों की सेहत।
ई-कचड़ा: रोजगार और धन लाभ यदि सही प्रबंधन हो
इलेक्ट्रोनिक क्रान्ति ने हमारे जीवन को सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण कर दिया है। विभिन्न इलेक्ट्रोनिक आविष्कारों के माध्यम से संचार-तंत्र को विस्तार एवं व्यावसायिक गतिविधियों को प्रोत्साहन मिलने के साथ-साथ रोजगार के अवसर भी बढ़े है । परंतु आज अधिक संख्या में खराब होने वाली इन्ही इलेक्ट्रोनिक वस्तुओं के अम्बार ने “ई-कचड़ा” के रूप मे एक नई पर्यावरणीय समस्या को जन्म दिया है।
“ई-कचड़ा” से तात्पर्य बेकार पड़े वैसे इलेक्ट्रोनिक उपकरणों से है, जो अपने उपयोग के उद्देश्य हेतु उपयुक्त नहीं रह जाते । पूरी दुनिया में हर साल हम लगभग 5 करोड़ टन इलेक्ट्रॉनिक और इलेक्ट्रिकल कचरा पैदा कर रहे हैं। यह जानकारी संयुक्त राष्ट्र की सात एजेंसियों की एक संयुक्त रिपोर्ट में सामने आई है। औपचारिक रूप से ई-कचरे का केवल 20 फीसदी हिस्सा ही रिसाइकिल होता है। इसके अलावा विश्व के लाखों लोग अनौपचारिक रूप से कचरे को छांटने, गलाने जैसे काम करते हैं, जिनका सेहत पर बुरा असर पड़ता है। ज्यादातर ऐसा कचरा लैंडफिल में यानि जमीन में गड्ढे खोदकर उनमें भर दिया जाता है। जमीन के रास्ते इससे निकलने वाले जहरीले तत्व पर्यावरण में फैलते हैं। कुछ को जलाया भी जाता है जिससे हवा में भी हानिकारक गैसें घुल जाती हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक स्टडी में पाया गया कि अमेरिका और चीन ने साल 2016 में क्रमश: 72 लाख टन और 63 लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा किया। इसके बाद 21 लाख टन के साथ जापान रहा। बैटरी या प्लग समेत जिन उत्पादों को फेंका जाता है, उन्हें इसमें गिना गया। विशेषज्ञ बताते हैं कि एक टन ऐसे ई-कचरे में से, उतने ही सोने के अयस्क से करीब 100 गुना ज्यादा सोना निकाला जा सकता है। इसके हिसाब से दुनिया भर में मौजूदा ई-कचरे का मूल्य सालाना करीब 62.5 अरब डॉलर के बराबर हुआ, जो कि बर्बाद हो रहा है।
विकासशील देशों को सर्वाधिक सुरक्षित डम्पिंग ग्राउन्ड माने जाने के कारण भारत सरीखे देश ऐसे ई-कचडें के बढ़ते आयात से चिन्तित हैं। अनेक देशों में तेजी से बढ़ती इलेक्ट्रोनिक क्रान्ति से एक तरफ जहा आम लोगों की इस पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। वही दूसरी ओर पर्यावरण के लिए खतरा और केंसर जैसी गंभीर बीमारियों का स्रोत बन रहे इस “ई-कचडे” का भारत प्रमुख उपभोक्ता है ।
खराब हो चुकी लिथियम आयन बैट्री भारी तबाही के तौर पर सामने आ रहे है। जिसके कारण मृदा प्रदूषण, जल एवं वायू प्रदूषण और अनेकानेक गम्भीर बीमारियां उत्पन्न हो रही हैं।
गैरकानूनी ढंग से असंगठित क्षेत्रों में हो रहा है काम
ई-वेस्ट के निपटान में बड़े स्तर पर असंगठित रूप से काम हो रहा है। एक अनुमान के मुताबिक लगभग २५ हजार लोग असंगठित रूप से ई-कचड़ा निपटान इकाइयाँ चला रहे है। इन इकाइयों में हाथ से ही सारा काम होता है। ऐसे में इस बात का खतरा रहता है की ई-वेस्ट के जहरीले कचड़ें से इनमें काम कर रहे लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर हो रहा है। कई लोगों का कहना है की असंगठित इकाइयों से यह काम कराते ताकि उनकी लागत में कमी आए लेकिन इससे होने वाला नुकसान बहुत बड़ा है।
जहाँ तक अमेरिका और ब्रिटेन की बात है तो वहाँ पर निर्माण कंपनियों को यह ज़िम्मेदारी दी गई है की वे अपने उत्पादों के ई-वेस्ट का निपटान करें। हालाँकि भारत में इस बात का प्रावधान २०११ में कर दिया गया है लेकिन उसका पालन सही तरीके से नही हो रहा हैं। अमेरिका और यूरोप में कंपनियाँ अपने उत्पादों को फिर से खरीदती है और उसके निपटान का प्रबंध करती है।
एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत मे सालाना ई-कचरा
दुनिया में सबसे ज्यादा इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा करने वाले (ई-कचरा) शीर्ष पांच देशों में भारत भी शुमार है। इसके अलावा इस सूची में चीन, अमेरिका, जापान और जर्मनी है। एक रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है।
- देशमे सालाना कचरें का उत्पादन:- 50 लाख टन
- प्रत्येकव्यक्ति २०० ग्राम से ६०० ग्राम तक कुड़ें का निर्माण करता हैं।
- २०३०तक भारत में १६.५ करोड़ टन कचरें का उत्पादन हो जाएगा।
यदि ई-कचरें की मात्रा इसी तरह दिनोंदिन बढ़ती गई तो भविष्य में ई-वेस्ट से निकलने वाली भारी धातुएँ एवं अन्य प्रदूषित पदार्थ मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के लिए कही अधिक नुकसानदेह साबित हो सकते है। ऐसी स्थिति को देखते हुए ई-कचरें का निस्पादन अति आवश्यक हो गया हैं।
बहुत बड़ी समस्या बन चुका हैं लिथियम आयन बैटरी का निष्पादन
भारत में मोबाइल फोन और बैट्री आधारित इलेक्ट्रॉनिक्स की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। मोबाइल फोन के अलावा लैपटॉप, रेफ्रीजरेटर, कैलकुलेटर, एयर-कंडीशनर, फ़ैक्स मशीन, फोटो-कोपीयर और बच्चों के खिलौने इत्यादि ने मानव जीवन मे सुविधाएँ बढ़ाई हैं तो ई-कचरें के रूप में बड़ी समस्या को भी जन्म दिया है। इनमें से ज़्यादातर उपकरणों मे लिथियम आयन बैटरी होती है जो एक निश्चित समय के बाद किसी काम की नही रहती और ई-कचरें का रूप ले लेती हैं। बड़ी संख्या मे इसका अनियंत्रित प्रबंधन व निष्पादन पर्यावरण को भारी नुकसान पहुचा रहा है। साथ ही साथ मिट्टी व जल-प्रदूषण, मानव जीवन तथा जलीय जीव-जंतुओं को भी इससे भारी नुकसान हो रहा हैं।
इस तकनीकी के द्वारा मोबाइल फोन बैटरी का पुनःचक्रन करके कोबाल्ट, लिथियम, कॉपर, मैंगनीज और निकेल जैसी धातुओं का उत्पादन किया जा सकता हैं, वह भी पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएँ बिना।
मोबाइल बैटरी को पुनःचक्रन करने की तकनीक भारत द्वारा प्रायोजित एफटीटी (फास्ट ट्रैक टेक्नालजी, ट्रांसफर) प्रोजेक्ट मिशन के तहत एनएमएल के वैज्ञानिकों ने विकसित की है।
खास बात यह हैं कि इस लिथियम आयन बैटरी में ‘कोबाल्ट’ पाया जाता है, जिसका भारत मे दूसरे देशों से आयात किया जाता हैं। भारत के पास कोबाल्ट का भंडार भी नही हैं। “लिथियम” का निष्कर्षण भी महत्वपूर्ण है जो की ऊर्जा सम्बन्धित धातु हैं।
इस इलेक्ट्रोनिक कचड़ें की वजह से २०२५ तक देश में ५ लाख रोजगार उत्पन्न होगा
वर्ष २०२५ तक ई-वेस्ट के क्षेत्र में भारत में लगभग ५ लाख नौकरियों का सृजन हो सकता है। उभरतें बाज़ारों में निजी क्षेत्र पर केन्द्रित विकास वित्त संस्थान अन्तराष्ट्रीय वित्त निगम ने यह अनुमान जाहीर किया है।
आईएफ़सी के मुताबिक इलेक्ट्रोनिक कचड़ा क्षेत्र में सम्पूर्ण शृंखला-संग्रह, एकत्रीकरण, निराकरण और रिसाइक्लिंग में २०२५ तक ४५०,००० प्रत्यक्ष रोजगार पैदा होंगे। इसके अलावा हजारों की संख्या में अप्रत्यक्ष रोजगार भी सृजित होगा।साथ ही परिवहन और विनिर्मान जैसे सम्बंध क्षेत्र में भी १८०,००० नौकरियाँ पैदा होने की सम्भावना है।