37 करोड़ रुपये का इनामी अफगानिस्तान का गृहमंत्री, 13 साल पहले दिया था भारत को जख्म 

रितेश। 20 साल बाद अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान छोड़ा। 20 साल बाद ही एक बार फिर तालिबान ने हुकूमत का औपचारिक ऐलान कर दिया। तालिबान घोषित आतंकी संगठन है और जाहिर सी बात है कि उसकी सरकार में दहशतगर्दों को ही जगह मिलनी थी, और मिली भी। एक नाम और उसका ओहदा या कहें पोर्टफोलियो, अमेरिका और दुनिया को चौंका रहा है। ये नाम है सिराजुद्दीन हक्कानी। उसे तालिबान की इस्लामिक अमीरात सरकार में आंतरिक या यूं कह लें कि गृह मंत्री बनाया गया है…वो कितना खूंखार आतंकी है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिका ने उस पर 50 लाख डॉलर यानी करीब 37 करोड़ रुपये का इनाम घोषित कर रखा है।

भारतीय दूतावास पर करवाया था हमला

सिराजुद्दीन और उसके पिता ने 2008 में काबुल के भारतीय दूतावास पर भी हमला कराया था। इसमें 58 लोग मारे गए थे। 2011 में अमेरिका के जॉइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ रहे जनरल माइक मुलेन ने हक्कानी नेटवर्क को पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI का दायां हाथ और एजेंट बताया था।

फिदायीन हमले इसके दिमाग की उपज

फिदायीन हमलों का इतिहास कई दशक पुराना है। माना जाता है कि श्रीलंका में सिविल वॉर के वक्त इनकी शुरुआत हुई थी, लेकिन अफगानिस्तान में फिदायीन या आत्मघाती हमले शुरू करने वाला हक्कानी नेटवर्क और खास तौर पर यही सिराजुद्दीन हक्कानी माना जाता है। अफगानिस्तान में इन हमलों में अब तक हजारों बेकसूर मारे जा चुके हैं। सिराजुद्दीन ने अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई की हत्या की साजिश भी इन्हीं हमलों के तहत रची थी। ये नाकाम रही।

 

2001 से हक्कानी नेटवर्क का सरगना है सिराजुद्दीन

कहा जाता है कि सिराजुद्दीन का बाप और हक्कानी नेटवर्क की स्थापना करने वाला जलालुद्दीन हक्कानी 2013 या 2015 के बीच मारा गया, लेकिन सिराजुद्दीन 2001 के बाद से ही हक्कानी नेटवर्क का सरगना बना हुआ है। सिराजुद्दीन पाकिस्तान के वजीरिस्तान में ही रहता है।

हक्कानी नेटवर्क को जानना जरूरी
सिराजुद्दीन हक्कानी जिस हक्कानी नेटवर्क का सरगना है…उस हक्कानी नेटवर्क को जानना भी बहुत ज़रूरी है…1980 के आस-पास सोवियत सेना ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया। अमेरिका ने इसे अपनी तौहीन समझा। पाकिस्तान के साथ मिलकर स्थानीय कबीलों को हथियार और पैसा दिया। इनमें हक्कानी नेटवर्क भी शामिल था। इसके बाद तालिबान बना और अमेरिका ने इन गुटों से दूरी बनानी शुरू कर दी, लेकिन पाकिस्तान इन्हें पालता-पोसता रहा। ISI ने हक्कानी नेटवर्क का इस्तेमाल अफगानिस्तान और अमेरिका दोनों के खिलाफ किया। ये एजेंसी पैसे भी लेती और हमले भी कराती। अमेरिका की ये नाकामी ही कही जाएगी कि वो पाकिस्तान पर दबाव डालकर हक्कानी नेटवर्क को खत्म नहीं करा सका।

तालिबान और हक्कानी नेटवर्क : कितने पास, कितने दूर
शायद कम लोगों को पता होगा कि तालिबान किसी एक संगठन का नाम नहीं है। इसमें कई गुट, कई कबीले और कई धड़े हैं। हक्कानी नेटवर्क को आप इनमें से एक मान सकते हैं। अफगान तालिबान अलग है और पाकिस्तान तालिबान अलग। बस एक चीज कॉमन है। ये सभी कट्टरपंथी और आतंकी संगठन हैं जो शरीयत के हिसाब से हुकूमत चलाना चाहते हैं। तालिबान और हक्कानी नेटवर्क अपनी सुविधा के हिसाब से एक-दूसरे का इस्तेमाल करते हैं। अफगान तालिबान को सत्ता में आने के लिए हक्कानी नेटवर्क ने दिल-ओ-जान से मदद की। नतीजा सामने है। उसका सरगना अब अफगानिस्तान का होम मिनिस्टर होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो तालिबान और हक्कानी नेटवर्क एक होकर भी अलग हैं, और अलग होकर भी एक हैं।

हक्कानी नेटवर्क का खूनी खेल

2001 में सिराजुद्दीन हक्कानी नेटवर्क का चीफ बना और 2008 में उसने काबुल में भारतीय दूतावास पर हमला करवाया था….इसमें 58 लोगों की मौत हुई थी…2012 में अमेरिका ने हक्कानी नेटवर्क को बैन किया… 2014 में हक्कानी नेटवर्क ने पेशावर में स्कूल पर हमला करवाया था…इसमें 200 बच्चे मारे गए थे…फिर 2017 में काबुल में हमला करवाया था…इसमें 150 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी

 

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